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सामाजिक सरोकार की कविताएं

शक्ति वर्मा  काव्य सृजन प्रक्रिया दो प्रमुख आधारों पर टिकी होती है। रचनाकार अपने अनुभवों द्वारा जीवन उद्देश्यों को काव्यरूप देकर संप्रेषणीय आधार प्रदान करता है। यह संप्रेषण काव्यगत सृजनात्मक विचारशीलता से सिद्ध होता है। डॉ मधुकांत की आलोच्य कृति  'मेरी ‌प्रिय कविताएं' में 150 कविताएं संकलित हैं। 207 पेज की इस पुस्तक में कवि ने मानवीय अनुभवों और के साथ-साथ  मानव और प्राकृतिक दुनिया के अलग-अलग पड़ावों के मार्मिक अनुभव प्रसंगों को उभारने वाले बिम्बों का प्रयोग किया है। इस संग्रह की कविताओं में लोक को भाषा के स्तर पर पिरोया गया है। इनमें कई कविताएं लोक अनुभव से निकली हुई हैं। कठोर अनुभव और सच्चाइयों से लबरेज बिंब कविता में ढलते हैं। पुस्तक की अधिकांश कविताएं छंदमुक्त हैं जो गैर -बराबरी पर आधारित व्यवस्था को चुनौती ही नहीं देतीं बल्कि पाठकों को सामाजिक सरोकार तक के लिए  भी अपने कार्यभार को चिह्नित करती हैं।  इन कविताओं की सार्थकता उनके सीधे सच्चेपन में हैं। ये कविताएं न कृतिम हैं और न ही सजावटी। इनमें कविि के मन की अंतरव्यथा उजागर हुई है जहां जीवन सिर्फ खुद के अस्तित्व के लिए सं
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भाषा का समाजशास्त्र

- शक्ति वर्मा  हिंदी में भाषा को लेकर बड़ा विवाद रहा है कि साहित्य की भाषा कैसी होनी चाहिए ?  कुछ लोगों की राय रही है कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी ही साहित्य की भाषा होनी चाहिए तो कुछ लोग हिंदी-उर्दू मिश्रित हिंदवी को साहित्य की भाषा रखने पर जोर देते रहे। कई विद्वान ऐसे भी रहे जो हिंदी में किसी अन्य भाषा का शब्द रखने के कट्टर विरोधी रहे। यही नहीं ,  साहित्य और बोलचाल की भाषा एक होनी चाहिए या विशिष्ट इस पर भी लंबी बहस चली है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है। दूसरों तक अपनी बात पहुंचाने का माध्यम ताकि आप जो कह रहे हैं वह उसे सही तरीके से समझ सकें। इसमें सारा खेल शब्दों का है। अपनी बात बताने के लिए जिन शब्दों का चयन किया गया है क्या उसे दूसरा समझता है। भाषा के विकास में लंबा समय लगता है। उसके बनने ,  रचने में समय और समाज का महत्वपूर्ण योगदान होता है। एक लंबी कालावधि में तमाम रास्तों से गुजर कर एक सटीक शब्द हासिल होता है। पहले उसका उपयोग विभिन्न नामों से होता है और फिर एक दिन एक सही शब्द का चयन होता है जो भाषा को समृद्ध करता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने   ‘  भाषा ,  साहित्य और समाज विमर्श

आप झूठ बोल रहे हैं

आलोक वर्मा किसी गांव में एक बनिया रहता था। उसके दो बेटे विजय और संजय थे। विजय जब कुछ बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता की मौत हो गई। माता-पिता की मृत्यु के बाद विजय ने छोटे भाई संजय का लालन-पालन किया। बड़े भाई के दुलार ने छोटे को कभी माता-पिता की कमी महसूस नहीं होने दिया। इस लाड़ प्यार ने उसे आलसी और कामचोर बना दिया। संजय की गलतियों को विजय  हमेशा बच्चा समझकर इग्नोर कर देता और कुछ नहीं बोलता। ‌विजय ने पिता के पुश्तैनी कामकाज को संभाल लिया। पिता की दुकान को नये सिरे से जमाया और जो थोड़ी बहुत जमीन थी उस पर खेती करना शुरू कर दिया। जब घर की स्थिति थोड़ी ठीक हुई तो लोगों ने विजय की शादी सुशीला नामक एक लड़की से कर दी। अब बाहर की जिम्मेदारी विजय और घर के भीतर की जिम्मेदारी सुशीला ने संभाल ‌लिया। विजय दुकान चला जाता। सुशीला घर में रहती और सब काम देखती। लेकिन छोटे भाई संजय की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। उसका मन पढ़ाई में  नहीं लगता था। धीरे- धीरे उसने स्कूल जाना बंद कर दिया। भाभी ने उसे बहुतेरे तरीके से समझाने की कोशिश की कि वह पढ़ाई जारी रखे। लेकिन संजय कुछ सुनने के लि ए तैयार नहीं था

परिवर्तन और निरंतरता का द्वंद्वः लुप्त होते लोगों की अस्मिता

- परशुराम आलोचना , वाद-विवाद और संवाद की संस्कृति है। जड़ और ठहरे मूल्यों के विघटन और युगीन संदर्भों में नये मूल्यों के सृजन और विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक संबंध होता है। यदि रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक वैचारिक संघर्ष नहीं है तो साहित्य की तत्कालीन परंपरा की विकास -गति अत्यधिक धीमी पड़ जाती है। रचना की तरह आलोचना भी एक सांस्कृतिक परंपरा है और आलोचना इसमें अपनी सक्रिय भूमिका तभी निभा सकती है जब वह केवल स्वीकृत‌ि न दे , सवाल भी उठाये और मिथ्या स्वीकृत‌ि को चुनौती भी दे।  वरिष्ठ हिंदी आलोचक विमल वर्मा की आलोच्य पुस्तक " लुप्त होते लोगों की अस्मिता" में इसका अनुभव किया जा सकता है। फिर भी आलोचना के संकट को लेकर जिस तरह और जिन प्रश्नों को रेखांक‌ित किया जा रहा है , उस पर संक्षिप्त चर्चा भी आवश्यक है। हम एक राजनीतिक समय में रह रहे हैं। इसल‌िए रचना और आलोचना तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों से अछूती नहीं रह सकती। अपने समय का पक्ष या प्रतिपक्ष उपस्थित रहता ही है। ऐसे समय में आलोचना केवल साहि‌त्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं होगी बल्कि वह राज