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इक्कीसवीं शताब्दी में भी सपना बना है 'सबके लिए स्वास्थ्य'

 - आलोक वर्मा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अज्ञात बीमारी से बच्चों के मरने से कोहराम मचा हुआ है। अब तक अकेले सहारनपुर जिले में इस बीमारी के चलते 170 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा पड़ोसी जिलों मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ और उत्तरांचल के हरिद्वार में भी बीमारी ने कहर ढाया है। जैसा कि होता है, पहले प्रशासन चुप्पी साधे रहा और जब मीडिया में मामले ने जोर पकड़ा तो अधिकारी भी जागे। लेकिन तब तक मरने वाले बच्चों की सूची काफी लंबी हो चुकी थी। यह जरूर है कि दिल्ली और लखनऊ में बैठे आकाओं को संतुष्ट करने के लिए स्वास्थ्य विभाग के एकाध अफसरों को दंडित कर दिया गया। लखनऊ और दिल्ली से विशेषज्ञों की टीमें आईं और कुछ 'सैंपल' लेकर  लौट गयीं। कई दिन बीतने के बाद भी सही बीमारी का पता नहीं चल सका और न ही बचचों की मौत का सिलसिला रोका जा सका है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी वैसे तो अधिकारिक रूप से कुछ भी कहने से बच रहे हैं, लेकिन कुछ का मानना है कि यह मस्तिष्क शोथ की मारी है तो कुछ इसे मियादी बुखार बता रहे हैं। लेकिन यह अकेला मामला नहीं है जब स्वास्थ्य विभाग रोगों पर काबू नहीं पा सका और देखते-
(एड्स पर अभी पिछले दिनों एक देश व्यापी आंकड़ा जारी किया गया है। नवंबर 2002 तक क्या हालात थे इस पर मैंने एक लेख लिखा था। इसके बाद 2007 में इस विषय पर लिखा अपना एक लेख दूंगा आलोक वर्मा) एड्स; आंकड़ों में मत उलझिए, खतरे को समझिए आलोक वर्मा 'एक्वायर्ड डिफिसिएंसी सिंड्रोम' (एड्स) और 'ह्यूमन डिफिसिएंसी वायरस' (एचआईवी) का खौफ एक बार फिर देशवासियों पर हावी हो गया है। दुनिया के सबसे अमीर और सूचना प्रौद्योगिकी के शहंशाह  बिल गेट्स ने भारत आकर यहां एड्स/एचआईवी संक्रमित रोगियों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताई और उनके उन्मूलन के लिए 500  करोड़ रुपये के अनुदान की घोषणा की तो दोनों बातों को लेकर विवाद छिड़ गया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा ने आगामी दिनों में भारत में रोगियों की संख्या के अनुमान को लेकर न सिर्फ चिंता जताई, बल्कि उसे विदेशी एजेंसियों का षड्यंत्र तक बता दिया। उन्होंने माना कि देश में इस समय 3.97 मिलियन लोग एचआईवी संक्रमण के शिकार हैं, लेकिन इस बात से सहमत नहीं थे कि भारत में 2010 तक एड्स रोगियों की संख्या 25 मिलियन हो जाएगी। इससे पहले बंगलूर में अमेरिकी
कौन लेगा उच्च शिक्षा की सुध? - आलोक वर्मा  एनडीटीवी पर रवीश कुमार पिछले 15 दिन तक प्राइम टाइम में देश की उच्च शिक्षा का हाल दिखाया। पहले क्या हालात रहे हैं, 3 अक्तूबर 2001 को दैनिक ट्रिब्यून में उस पर प्रकाशित मेरी एक टिप्पणी। 'हल्ला -गुल्ला, शोर शराबा, जिंदाबाद-मुर्दाबाद व हाय-हाय के नारों के बीच पंजाब विश्वविद्यालय (पीयू) चंडीगढ़ से संबंद्ध नगर (चंडीगढ़) के सभी कालेजों के छात्र-छात्राओं ने हड़ताल कर दी तथा इकट्ठे होकर जुलूस की शक्ल में कुलपति के दफ्तर पहुंच गए। चंडीगढ़ के इतिहास में पहली बार सभी स्थानीय कालेजों के लगभग 5000 विद्यार्थियों ने धरना दिया और वि.वि. अनुदान आयोग द्वारा जारी उस प्रपत्र की कड़ी आलोचना की, जिसमें पंजाब तथा चंडीगढ़ के सभी 108 कालेजों के विद्यार्थियों के लिए 75 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य किए जाने का आदेश दिया गया था।'   'हफ्ते में 40 घंटे पढ़ाना शिक्षक विरोधी है, जिसे किसी भी हालत में लागू नहीं किया जाना चाहिए। यह बात भी शिक्षक विरोधी है कि शिक्षक अपने काम का मूल्यांकन खुद करें और अपनी अटेंडेंस का ब्योरा खुद दें। ' पंजाब यूनिवर्सिटी टीचर्स
सल्तनत शासन में साम्प्रदायिकता का प्रश्न- आलोक वर्मा यह लेख 1991 में लिखा गया था। उस समय भी आज जैसे ही हालात थे। सत्ता के लिए धर्म क नाम पर जनता की भावनाओं का दोहन किया जा रहा था। इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा था। एक माहौल बनाया जा रहा था जो बाद में बाबरी ढांचा ध्वंस के रूप में सामने आया। आज भी कुछ वैसे ही हालात हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय वे लोग सत्ता में आने के लिए वह सबकुछ कर रहे थे और आज वे सत्ता में हैं। पिछले समय में साहित्यकारों पर हमले और हत्या इस बात की तसदीक करती है कि आज खतरा बढ़ गया है। ताजमहल से लेकर  मुगलकाल में निर्मित कला और पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण तमाम नायाब इमारतों को ढहाने या खारिज करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है ताकि लोगों के बीच दूरी बढ़े। पुरानी किताबों और पत्रिकाओं को उलटने पलटने के दौरान उनके बीच से यह लेख मुझे मिल गया तो सोचा कि क्यों न इसे आप लोगों से साझा करूं। हां एक बात और, यह लेख वर्ष 1991 में कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से प्रकाशित दैनिक छपते-छपते के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। इसे बगैर किसी बदलाव के हूबहू उतार
साहित्य क्यों और किसके लिए?  आलोक वर्मा -------------------------------------------------------------- साहित्य क्यों और किसके लिए ये प्रश्न कला और सभ्यता के विकास के साथ-साथ अनेक बार व्याख्यायित हुए हैं। तुलसीदास के समय सन्दर्भ और आज के समय सन्दर्भ में बहुत अन्तर आ गया है क्योंकि आज के वातावरण में आज का स्थितियों में, परिवेश और चरित्रगत अभिव्यक्तियों में करीब-करीब आमूल परिवर्तन हो गए हैं और साथ ही साथ आत्माभिव्यक्ति, आत्मान्वेष और युग परिवर्तन जैसे बहुत से शब्द कला-मीमांसा में अवतरित किए गए हैं। यहां मैं उन बहसों में प्रवेश करना नहीं चाहता परन्तु मोटी बात यह है कि साहित्य की रचना व्यक्ति ही करता है। व्यक्ति और समाज के रिश्ते को लेकर कला मीमांसा में बहुत सारे सवाल उठाये गये हैं, विशेष करके वस्तुनिष्ठता और आत्म-परकता के प्रश्न। इसलिए व्यक्ति और उसकी चेतना का प्रश्न साहित्यिक समझदारी का केंद्रीय प्रश्न है। उपनिषद काल से लेकर आज तक मानव चेतना के बारे में जितनी दार्शनिक अवधारणायें हैं उनमें मार्क्सवाद को छोड़कर सभी दर्शन चेतना की प्रक्रिया को द्वंद्वात्मक न मानकर या तो उसे विषयीगत मानत