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परिवर्तन और निरंतरता का द्वंद्वः लुप्त होते लोगों की अस्मिता

- परशुराम

आलोचना, वाद-विवाद और संवाद की संस्कृति है। जड़ और ठहरे मूल्यों के विघटन और युगीन संदर्भों में नये मूल्यों के सृजन और विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक संबंध होता है। यदि रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक वैचारिक संघर्ष नहीं है तो साहित्य की तत्कालीन परंपरा की विकास -गति अत्यधिक धीमी पड़ जाती है। रचना की तरह आलोचना भी एक सांस्कृतिक परंपरा है और आलोचना इसमें अपनी सक्रिय भूमिका तभी निभा सकती है जब वह केवल स्वीकृत‌ि न दे, सवाल भी उठाये और मिथ्या स्वीकृत‌ि को चुनौती भी दे।  वरिष्ठ हिंदी आलोचक विमल वर्मा की आलोच्य पुस्तक " लुप्त होते लोगों की अस्मिता" में इसका अनुभव किया जा सकता है। फिर भी आलोचना के संकट को लेकर जिस तरह और जिन प्रश्नों को रेखांक‌ित किया जा रहा है, उस पर संक्षिप्त चर्चा भी आवश्यक है।
हम एक राजनीतिक समय में रह रहे हैं। इसल‌िए रचना और आलोचना तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों से अछूती नहीं रह सकती। अपने समय का पक्ष या प्रतिपक्ष उपस्थित रहता ही है। ऐसे समय में आलोचना केवल साहि‌त्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं होगी बल्कि वह राजनीतिक भी होगी। इस लोकतंत्र में असहमति के पक्ष में तर्क तो दिए जाते हैं किंतु सहमति की अपेक्षा सभी की होती है और यह सत्ता के पक्ष में होती है। फूको की एक बहुत प्रसिद्ध मान्यता है कि ' ज्ञान और सत्ता का बहुत गहरा संबंध होता है , ' नॉलेज आफ पावर'' आलोचना का संकट वस्तुतः सत्ता और समय के संकट से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। कारण पूंजीवादी समाज में रचना और आलोचना का व्यवसायीकरण हो गया है। अब तो दो ही यर्थाथ से साक्षात्कार होता है। एक है- बाजार और दूसरा है - उपभोक्ता। जिस समाज में कलाकृत‌ि बाजारू माल बन जाती है, वहां कला अलगाव का शिकार हो जाती है, दीनता से भर जाती है और अपना सारतत्व  खो देती है। इसलिए निजी दुराग्रह और उपभोक्तावादी संस्कृत‌ि में रचना और आलोचना का अवमूल्यन हुआ है। यह एक सच्चाई है। आलोचना की विश्वसनीयता कमतर होने में निजी दुराग्रह की भूमिका प्रमुख रही है। व्यक्तिगत, वैचारिक या सांगठनिक संबंधों के आधार पर रचनाओं और रचनाकारों की अतिरंजित प्रशंसा होती है या रक्तरंजित निंदा होती है और आलोचना अपने सांस्कृत‌िक दायित्व से भटक जाती है। इसे अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। मार्क्स ने ऐसे ही नहीं लिखा था कि ' आलोचना की प्रथम शर्त है दुराग्रह से मुक्ति।'
प्रसिद्ध वैज्ञानकि हाइजेन वर्ग का निष्कर्ष है क‌ि हम कभी यथार्थ को तद्वत नहीं जान सकते, क्योंक‌ि हमारे जानने के माध्यम का बीच में होना ही यथार्थ को हमारे ल‌िए रूपांतरित कर देता है।  इसल‌िए हम जिसे यथार्थ कह रहे होते हैं, वह माध्यम द्वारा रूपांतरित यथार्थ होता है, वास्तविक यथार्थ नहीं। हम आंखों से देख रहे हैं किंतु वही नहीं देख रहे हैं जो है, बल्कि साइबर स्पेस, मुक्त प्रवाही छवियों और मीडिया नियंत्रित घटनाओं को देख रहे हैं। हमारी आंखें कृत्रिम यथार्थ को देखने की अभ्यस्त होती जा रही हैं। यह आज के समय की त्रासदी है। इसलिए आलोचना के लिए यह महत्वपूर्ण दायित्व होता है कि रचना में चित्रित यथार्थ, मूल्यगत प्रभाव और प्रभुत्वशील संस्कृत‌ि के साथ उसके अंतर्संबंधों का  विश्लेषण करते हुए वह सत्ता के पक्ष या प्रतिपक्ष में उसकी भूमिका का उद्घाटन करे। आलोचना की यही सामाजिक सकर्मक भूमिका हो सकती है। ' तुम ऋषि, मैं मुनि' की घातक प्रवृतियों से रचना और आलोचना दोनों का अवमूल्यन हुआ है। इसके लिए रचनाकार और आलोचक दोनों जिम्मेदार हैं। किसी एक पर दोषारोपण करना तर्कसंगत नहीं है।    
'आलोचना का आत्मसंघर्ष ' में कृष्ण मोहन ने ठीक ही लिखा है कि ' आलोचना के सामने मौजूद जो सबसे प्रमुख चुनौती है, वह साहित्य और उसके माध्यम से जीवन और समाज की नई परिघटनाओं की तर्क-बुद्धि विवेक - परक व्याख्या करने और उसे समझने योग्य बनाने की है, क्योंकि मानव विरोधी शक्तियां फिलहाल नये उत्साह से इन परिघटनाओं का मिथकीकरण और आदर्शीकरण  में लगी हुई हैं। ' (आलोचना सहस्त्राब्दी, अंक- पच्चीस, अप्रैल-जून 2007) रचना और आलोचना का अपने समय से संवाद और उसमें हस्तक्षेप में ही उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों की भूमिका अन्तर्निहित है। आश्चर्य तब होता है जब केवल आलोचना को कठघरे में खड़ा किया जाता है तथा रचना और रचनाकार सुरक्षित टेबलों पर बैठकर आत्ममुग्धता की स्थिति में होते हैं। जबकि इस संकटकालीन स्थिति का जिम्मेदार कोई तीसरा है जो सारा खेल खेल रहा है और इस खेल का सूत्रधार और कोई नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था की लगातार बढ़ती रैकरण की प्रवृत्ति है जिसमें मानव अस्त‌ित्व ही दो हिस्सों में बंट गया है।  विमल वर्मा ने भी ' रचना में राजनीतिक उप-पाठ' आलेख में संकेत किया है कि 'मालों ' का फिटिशवाद (रैकरण) समूची भारतीय जीवन पद्धति, हमारे अंतर्मन, बौद्ध‌िक विन्यास पर भी भीषण हमला कर रहा है। ' और ' समकालीन रचनाशीलता में लोक के संश्लेषणशील स्वभाव के तहत तनाव, मुख्यअन्तर्विरोधों की फलश्रुतियों को समय-छवियों में गढ़ने के बजाय छद्म चेतना, गौण समस्याओं एवं अप्रासंगिक समस्याओं के जो भव्य रेत महल निर्मित हो रहे हैं,'   हम उसी में उलझ गए हैं। इसे समझने की आवश्यकता है। ' आलोचना के संकट की संक्षिप्त और सांकेतिक चर्चा इसलिए भी अपेक्षित थी कि व‌िमल वर्मा की आलोचना - पुस्तक ' लुप्त होते लोगों की अस्मिता ' ऐसे ही संकटकालीन और अनालोचनात्मक समय में प्रकाशित हुई  है।  इस पुस्तक में सामाजिक यथार्थ के अंतर में पल रहे यथार्थ और द्वंद्वों की इतिहासपरक व्याख्या नये आलोचनात्मक चिंतन-अनुचिंतन की सकारात्मक  विमर्शों के माध्यम से सच को समझने की कोशिश दीखती है। डॉ. आनंद प्रकाश ने भूमिका में निष्कर्षतः ठीक ही इंगित किया है कि ' स्पष्ट है कि इस पुस्तक के निबंधों की सार्थकता इसमें है कि वे पाठक का सामना भाषा और समाज के स्तर पर अनेक विचारधारात्मक संकटों और चुनौतियों से कराते हैं । '
विमल वर्मा की ' अपनी बात' में स्वीकृति है कि वह ' रचना - संवेदना का सहयात्री बनकर अपनी पठन-प्रक्रिया में ' भाषा द्वारा सर्जित विचार और भाषा की सिरजती विचार -प्रक्रिया द्वारा संवेदना के विन्यास तक पहुंचने का प्रयास ' करते हैं और वह इस ' पठन-प्रक्रिया में  इतिहास विज्ञान की क्षमता तथा दर्शन (द्वंद्वात्मक वस्तुवाद) की गहरी समझ होना ' की अनिवार्यता को भी मानते हैं। कहानियों के विश्लेषण में इस दृष्टि से वह सजग भी हैं अन्यथा वह भी कइयों की तरह भाषा के भीतर कैद होकर रह जाते। डेविड मैक्नेली ने लिखा है कि ' भाषा के भीतर कैद होकर हम शब्दों के साथ खेल भर सकते हैं, परंतु हम अपने आपको उत्पीड़न की उन अपरिवर्तनीय संरचनाओं से मुक्त नहीं कर सकते जो स्वयं भाषा में ही निबद्ध है। इस तरह का दृष्टिकोण राजनीतिक दायित्व का परित्याग ही है, वह भी ऐसे समय में जब विश्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अस्थिरता व्याप्त हो, अमीर - गरीब के बीच खाइयां चौड़ी हो रही हों और शासक-वर्ग सामाजिक कार्यक्रमों पर हमले कर रहे हों। ' किंतु ठीक इसके विपरीत विमल वर्मा भाषा- विमर्श, उत्तर संरचनावादी और उत्तर आधुनिकतावादियों के तर्क और ज्ञान का उपयोग सामाजिक यथार्थ और सच की तह तक पहुंचने के लिए करते हैं और पूंजीवादी षड्यंत्रों और शोषण का पर्दाफाश करते हैं। यह दीगर बात है कि जिन कहानियों का उन्होंने चयन किया है, उनमें से कई विचारधारात्मक और संरचनात्मक दृष्टि से कमजोर प्रतीत होती हैं। एक और बात। वह कहीं भी विश्लेषण में विचारधारा को छिपाते नहीं। मुझे रोलावार्थ की एक प्रसिद्ध उक्त‌ि का स्मरण हो आता है कि ' आलोचना में विचारधारा का होना नहीं बल्कि उसके बारे में चुप्पी रखना एक गुनाह है। ' विमल वर्मा कहीं ऐसा गुनाह नहीं करते। और न ही कहानियों के विश्लेषण में कहीं उनका दुराग्रह दिखाई देता है।  
यथार्थ निरंतर परिवर्तनशील है। डॉ. नामवर सिंह  ने लिखा है कि ' यथार्थ को जानने की, उसके बाद, यथार्थ के अनुभव से गुजरने की, ये दो काम किये बिना यथार्थ के साथ संवाद संभव नहीं है, अभिव्यक्ति संभव नहीं है। ' रचनाकार यथार्थ से निजी स्तर पर संवाद करता है और आलोचक भी अपने स्तर पर। यथार्थ की परतों को भेदकर अन्तर्वस्तु तक पहुंचने तथा 'पाठ-पठन में रिक्तता, दरार, मौन को खोलने ' और ' अदृश्य'  को पहचानने की संभावना संरचना के नेटवर्क में छिपी रहती है। '  रचना में जो अव्यक्त होता है, वह कभी-कभी व्यक्त से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। इसलिए उन्होंने ' अव्यक्त' को खोजने के लिए पाठवादी आलोचना-पद्धति का इस्तेमाल किया है। किंतु यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि बिना इस पद्धति के उपयोग के भी यह संभव है  जिसे लेखक के ही अनुसार डॉ. नामवर सिंह, मार्कण्डेय, सुरेंद्र चौधरी, विजय मोहन सिंह ने ' किलर्स', ' दाज्यू', ' कफन और घंटा', 'मुसई चा' आदि में किया है।  इसी आलोच्य पुस्तक में विमल वर्मा के और भी इसी तरह के लेख हैं। इस संदर्भ में ' परिवेश-नया- परिप्रेक्ष्य', ' परिवेश में अनुभूति की वास्तविकता का प्रश्न', ' माध्यम की तलाश',  ' अनुभूतियों  का विन्यास', ' समकालीन वास्तविकता और कहानी' आदि को उल्लिखित किया जा सकता है। इस तरह की आलोचना की प्रविधि महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि संप्रेषणीय भी है और पाठक की समझ का परिष्कार भी करती है। 
आलोच्य पुस्तक में कहानीकारों की एक-एक कहानी का विवेचन-विश्लेषण है और उसके माध्यम से सामाजिक - सांस्कृतिक संरचनात्मक यथार्थ की अन्तर्वस्तु तक पहुंचने का प्रयास पर‌िलक्षित होता है। कथा - पात्रों के संवादों में व्यक्त -अव्यक्त का विश्लेषण -विवेचन वर्तमान समाज और इत‌िहास की समझ की निर्म‌िति में सहायक है।  कहानियों के चयन में उनका मुख्य ध्यान इस बात में है कि उनके माध्यम से भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का विश्लेषण हो सके और पाठक के सामने सही परिप्रेक्ष्य हो ताकि वह पर‌िवर्तन की संकेत -दिशा को समझ सके। पूंजीवाद, साम्राज्यवद और फिर भूमंडलीकरण के प्रभाव से समूचा भारतीय समाज संकटग्रस्त है। आतंकित है।  एक तरह से उसकी स्थिति दिशाहारा की हो गयी है। वह विकल्पहीनता का शिकार है। इसलिए सामाजिक मुक्ति के व‌िकल्प की खोज में ' वह रचना की व्याख्या करते समय सांस्कृतिक संरचनां को दिमाग में रखते हैं। '  डॉ. सुरेंद्र चौधरी ने लिखा है कि ' कहानियों का अंतिम स्तर (अर्थ-विवृति की दृष्टि से) सांस्कृतिक होता है। यहां कहानियां विशेष से सामान्य हो जाती हैं, अर्थात वे एक संपूर्ण जीवन-पद्धति का आंतरिक सत्य बन जाती हैं। यहां कहानी का सत्य जीवन का सत्य हो जाता है। कहानी अपने प्रत्यय सत्य (Abstraction) से अनायास संबद्ध हो जाती है। ' डॉ. सुरेंद्र चौधरी की तरह विमल वर्मा भी सांस्कृतिक संरचनाओं को दिमाग में रखते हैं ताकि जीवन और समाज का सत्य तथा उनके विकासमान तत्वों की खोज की जा सके ताकि पाठक सजग होकर परिवर्तन की संकेत दिशा को समझ सके। यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि विमल वर्मा का उद्देश्य रचना या रचनाकार का मूल्यांकन प्रमुख नहीं है बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि कहानियों के विश्लेषण में इसका पड़ताल करना है कि कौन सी सांस्कृतिक स्थितियां किन परिस्थितियों और किन कारणों से भारतीय समाज की आंतरिक सामाजिक संरचना को तोड़-फोड़ रहे हैं ताकि अतीत के सकारात्मक मूल्य, वर्तमान की सचेतनता और भविष्योन्मुखी सुखी समाज की परिकल्पनाएं ही विलुप्त हो जाएं।  कहानियों में निष्कर्षों और उनके मूल्यांकन की खोज करने वाले पाठक या समीक्षक निराश ही होंगे। उनके लंबे उद्धरणों की उपस्थिति अभिप्रेत के लिए प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे समय में जबकि बौद्धिक समाज में सन्नाटा छाया हुआ है और ठहराव की स्थिति है वैसे में नये सिरे से बहस के लिए आज की भयावह स्थिति में एक सीमा तक आवश्यक भी लगता है। मैं इस पर अलग से टिप्पणी नहीं करना चाहता। आनंद प्रकाश ने भूमिका में इस संदर्भ में सार्थक संकेत किया ही है।
रचना में व्यक्त यथार्थ में दुनिया को बदलने और नयेपन का निर्मिति का संकेत उसकी सार्थकता का एक पक्ष है। विमल वर्मा सांस्कृतिक संरचनाओं के विश्लेषण के माध्यम से उस नये मूल्य को खोजने का प्रयास करते हैं। नीलकांत की दो कहानियां- ' बेदखली' और ' मटखन्ना' के विश्लेषण में भारतीय ग्राम -संरचना के वर्तमान परिदृश्य में पूंजी, सामंती शोषण, धर्म के प्रति अन्धलोकवाद, सामाजिक न्याय के बहाने अस्मिता और पिछड़ी जातियों के हितैषी राजनीतिक तंत्र का पर्दाफाश, जो शोषण के विरुद्ध शोषितों के एकजुट होने में बाधक है, विभिन्न संकेतों के निहितार्थों के माध्यम से स्पष्ट है। इस दृष्टि से नीलकांत की दोनों कहानियां भारतीय ग्रामीण समाज की संरचना में व्याप्त शोषण के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करती हैं और आलोचक विमल विमल वर्मा ने बहुत ही बारीकी से इसकी संतुलित व्याख्या की है। यह तब तक संभव नहीं है जब तक यथार्थ के भीतर प्रवेश कर अतीत की वर्तमानता, भविष्य से उसके अनिवार्य संबंध-बोध की अनुभूति का जायजा न लिया जाय। इसमें संवादों के माध्यम से पाठ - प्रस्तुति है। किस प्रकार राम जानकी की मूर्ति को प्रकट करने का षड्यंत्र रचा जाता है और मोहन महतो अपनी भूमि से बेदखल होकर खेत मजदूर बन जाने का विवश हो जाता है। वह प्रत‌िरोध भी नहीं कर पाता है। पूरे कथानक या घटनाक्रम का पाठ यहां सभव नहीं है। किंतु कहानी में घटना अपनी अ‌भिप्रेत के लिए एक क्षेपक प्रसंग के रूप में प्रस्तुत है। मैंने क्षेपक प्रसंग इसलिए कहा है कि कस्बे या गांव में इस तरह की घटना अस्वाभाविक और अविश्वसनीय लगती है क्योंकि वहां जमीन के प्रत‌ि लोग संवेदनशील होते हैं और उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। किंतु मोहन महतो में प्रत‌िरोध की शक्ति नहीं रह जाती। यद्यपि उससे इस तरह से आत्म समर्पण करने के लिए किसी ने कुछ कहा भी नहीं था। किंतु धर्मवीरू तो वह था ही।  प्रस्तुत ढांचे की निर्मिति लेखक द्वारा यह ऐतिहासिक उपकथा है- ऐसा आलोचक का मानना है। मुझे उम्बर्तो इको की एक उक्ति याद आती है कि ' किसी भी कृति का पाठ जब हम करते हैं तो तब तक वह पाठ नहीं कहलाएगा जब तक उसके परंपरित पाठ में हम कुछ नया न जोड़ दें। ' आलोचक एक गंभीर पाठक होता है। और हर पाठक  अपने लिए रचना की पुनर्रचना करता है। यानी अपने अनुसार अर्थ की खोज करना। यह उसकी पुनर्रचना है। यहां आलोचन की पुनरर्चना करके रचना में अर्थ की खोज करता है। कटना में अव्यक्त को व्यक्त करके उसे सार्थक पहचान देता है। कलकत्ता से  सेठ राम नगीना मारवाड़ी का आना कस्बे में पूंजी के प्रवेश का संकेत है। वह पूंजीवादी शोषण का खेल बड़े चाव से खेलता है। व्यापार मंडल का गठन करता है। लोगों में अपनी धार्मिक छवि गढ़ता है, प्रचारित करता है। ईश्वर, मंदिर, स्वामी‌ विरक्तानंद, गल्ले की आढ़त, कर्ज देना, लठैत, तीन - चार एकड़ खेत का टुकड़ा इत्यादि संकेत सांस्कृतिक और ग्रामीण सामाजिक संरचना के कूट हैं। इन  संकेतों के खोलने से यथार्थ का समूचा स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। आलोचक का उद्देश्य भी यही है- ऐसा प्रतीत होता है। प्रस्तुत कथा में सेठ राम नगीना शोषक वर्ग के हितों, उसकी चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। पूरी घटना - विश्लेषण के पश्चात इस सामाजिक सत्य का उद्घाटन होता है कि आर्थिक और सामाजिक, राजनीतिक व्यवहार को निर्धारित करने में धार्मिक भावनाओं के रूप में सत्ता के वर्चस्व का फलितार्थ है। धर्म उन बेड़ियों का प्रतीक है, जो हमें ऐसे अतीत से बांधती है । जिससे हम अवचेतन रूप में शासन-शोषण के शिकार के चारागाह बनते हैं। ग्राम्शी ने इसीलिए लिखा है कि ' सत्ताशील (वर्चस्ववादी) वर्गशासितों के ऊपर अपनी शक्ति का प्रयोग उसकी सहमति के साथ, उसकी विचारधारा के समावेशन और रूपांतरण के साथ करता है। ' ' रचना में राजनीतिक उप-पाठ ' शीर्षक भी साभिप्राय और आकर्षक है।
' अतीत का वर्तमानः वर्तमान का भविष्य' में ' मटखन्ना' में एक दूसरी ही स्थिति है। नीलकांत इस कहानी में विष्णु शर्मा के ' पंचतंत्र' के पशु चरित्रों के संवाद-शिल्प का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से किया है। ' टेंगड़ी' को विषय- वस्तु का तर्क योजना में रूपायित क‌िया गया है। ' टेंगड़ी ' का वचन और कर्म मानवीय बोध बनकर संवेदना को गहरा बनाता है। सामाजिक न्याय के नाम पर ' मंडल' और इसके विरोध में 'कमंडल' की राजनीति ने भारतीय समाज को जाति, अस्मिता और धर्म के नाम पर विभाजित कर दिया है। पिछड़ी जातियों और दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है।  केवल उनमें जो थोड़े - बहुत संपन्न थे, दबंग थे या पढ़े -लिखे मध्यम वर्ग  थे, उन्हें ही‌ किंचित लाभ मिला है। स्थिति‌ यह है कि ये लोग उस वर्ण या वर्ग से अपने को अलग मानते हैं। समाज के भीतर या उनके स्वयं के भीतर भी समरसता नहीं दीखती। 'मटखन्ना'  कहानी में भूमिहीन गोपीचंद्र और दलित जाति का महतो के संबंध में दलित और पिछड़ी जाति के सामाजिक न्याय का मुखौटा उतर गया है। वहां भी पूंजी  का ही खेल चलता है।  मनुष्यों के आपसी संबंध मालों के संबंध में परिवर्तित हो गये हैं। यह पूंजीवादी समाज की ही विशिष्टता है। पूंजी ने सारे संबंधों को कल‌ुषित और अमानवीय बना दिया है। कहानी में प्रतीकों और संवादों में इसका उद्घाटन कहानी की विशिष्टता है। यह किसी से छिपा नहीं है ‌कि जिसके पास पैसा है या जन-बल है, गांवों में या शहरों में भी उन्हीं का वर्चस्व चलता है। उन्हें वह सब कुछ उपलब्ध होता है जिसकी उन्हें चाहत होती है। इस कहानी में आज के गांव की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति का चित्रांकन है। ग्रामीण संरचना में व्याप्त राजनीतिक और आर्थिक तंत्र सजीव हो उठा है। विमल वर्मा ने ठीक ही लिखा है कि महतो, ग्राम प्रधान तथा पार्टी नेताओं एवं नौकरशाहों इत्यादि के माध्यम से कृति के समूचे विन्यास और कथा- संरचना में पूंजीवादी सत्ता की प्रकृत अवस्था और गति की परस्पर संबद्धता उकेर दी जाती है।  ' पाठ' की उनकी व्याख्या यह संकेत देती है कि ' हम जिन शक्तियों द्वारा नियंत्रित, उत्पीड़ित और शोषित होते हैं, उनसे मुक्त‌ि पाने के लिए चेष्ठारत हों। ' रचना में सामाजिक बदलाव के प्रेरक तत्वों की खोज, उनकी आलोचना का प्रमुख कारक और मनसा है जिसे पहले ही उल्लेख किया जा चुका है।
आलोच्य पुस्तक में जिन कथाकारों की कहानियों का चयन किया गया है उनमें से अधिकांश अपने समय में तो चर्चित रहे ही हैं, आज भी कहानी पर बात हो और उनकी चर्चा न हो, यह संभव नहीं है। मैं दुराग्रहियों की बात नहीं कर रहा।  ' परिवेश-नया-परिप्रेक्ष्य' में स्वतंत्रता के बाद बदलने वाली देश की भावभूमि की ओर संकेत है जिसे छेदीलाल गुप्त की 'पार्क की शामः तीन परछाइयां', राजेंद्र यादव की ' अभिमन्यु की आत्महत्या', निर्मल वर्मा की ' एक शुरुआत', रेणु की ' रसप्रिया', अवध नारायण सिंह की ' विद्रोह की अनबुझ आग', कमलेश्वर की 'कस्बे का आदमी', मार्कण्डेय की ' कल्यानमन', शिवप्रसाद सिंह की 'अंधकूप', लक्ष्मी नारायण लाल की ' बलदाऊ', अमरकांत  की ' लड़की और आदर्श' की कहानियों में अनास्था और टूटन के विपरीत आस्था, निर्माण, आशा और जीवन से जुड़ने वाली सकारात्मक जीवन मूल्यों के संकेत उनके विश्लेषण के उपजीव्य हैं और यह प्रश्न आज के प्रसंग में उनता ही जीवंत है कि ' यह सब क्या नया नहीं है? नया ही नहीं, कहां वह छूटता है और कहां वह टूटता है? ' ये सारे प्रश्न केवल आलोचक से ही नहीं बल्कि आज के रचनाकारों से भी है कि तमाम विपदाओं, विडम्बनाओं और विद्रूपताओं से आवृत्त संकटग्रस्त जीवन में प्रतिरोधात्मक चेतना की पहचान क्यों चिन्हित नहीं हो पा रही है। इस पर विचार विमर्श होना चाहिए।  विमल वर्मा अपने ढंग से अन्य लेखों में इन्हीं संकेतों की पहचान करते हैं, कराते हैं और उनमें निहितार्थों को खोलते हैं।   उपर्युक्त विभिन्न कहानियों के रचनात्मक परिवेश और उसके चरित्रों के माध्यम से आजादी के बाद टूटते सामाजिक संबंधों में पल रहे नये की निर्मिति को संकेतित किया गया है। इन कहानियों की ‌विश्लेषण -पद्धत‌ि में विमल वर्मा की यथार्थपरक दृष्टि सामाजिक संरचना में विकासमान जीवन-मूल्यों और नई चेताना को  बारीकी से उद्घाटित करती है। कहानी की आलोचना की यह प्रव‌िधि महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्क‌ि संप्रेषणीय भी है और पाठक की समझ का परिष्कार भी करती है। पाठवादी आलोचना से यह भिन्न आलोचना  है । मैंने पहले भी इसे ‌इंगित किया है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है निर्मल वर्मा की कहानी ' एक शुरुआत' पर समीक्षात्मक टिप्पणी। इसमें तत्कालीन परिवेश में रचनात्मक परिस्थ‌िति और उसके संकेतार्थों को स्पष्ट किया गया है। उनका यह कहना सही है कि इसमें ' अपने पर्सपेक्टिव में 'रियलिटी' के साथ दो व्यवस्थाओं- यूरोप के ह्रासोन्मुखी एवं भारत के विकासोन्मुखी स्वरूप के - संधि स्थल की जटिलता को बड़ी खूबी से पहचानने की ओर संकेत है जो इस संवाद के मूल वक्तव्य का निहितार्थ है- ' इट वुड बी ए स्ट्रैंज लैंड' (भारत के बारे में) और यूरोप के बारे में एक सहयात्री कहता है- " हर साल हजारों टूरिस्ट आते हैं, आर्ट गैलरीज, म्यूजियम, पुराने चर्च और कैथड्रल वह सब कुछ जो बीत गया है' उन्हें आकर्षित करता है और उसे देखकर वह वापस लौट जाते हैं। यूरोप की यात्रा करते क्या आपको कभी महसूस नहीं हुआ कि ' देअर इज डेथ... इन एअर आल अराउंड?" यहां यह रेखांकित करना आवश्यक है कि ' एक शुरुआत' के विश्लेषण का आधर उसका रचनात्मक परिवेश और संदर्भ है, न कि निर्मल वर्मा की विचारधारा की। फ्रेड्रिक एंगेल्स के इस कथन में संपुष्टि है ' कोई भी विचार, भले वे समाजवादी विचार ही क्यों न हों, कृति का अंग बन ही उसमें प्रवेश पा सकते हैं। कृति के अंतर्गत लेखक के विचार जितना अधिक प्रच्छन्न रहें, कलात्मक सौंदर्य के लिए वह उतना ही अच्छा होगा। कारण सच्चा यथार्थवाद लेखक के अपने विचारों के आरोपण के बिना ही कृत‌ि के भीतर से अभिव्यक्त‌ि करने में समर्थ हो जाता है। '
' परिवेश में अनुभूति की वास्तविकता का प्रश्न' में नीरज सिंह की कहानी ' क्यों ' में गांवों में मौजूद सामंती संबंधों में पूंजीवाद की बाजार-व्यवस्था ने निश्चित रूप से दरार पैदा कर दी है।  अस्मिता की चुनावी राजनीति ने जागरूकता को विकृत भी किया है। क‌िंतु वर्ण वर्ग में रूपांतरित नहीं हुआ है। सुमेर सिंह की इस उक्त‌ि से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि "आदमी की जात अब पैसे से छोटी या बड़ी होने लगी?... तब मैं आपकी जात का कैसे हुआ। मेरे पास तो पैसा नहीं है। मैं तो आपके खेत में मजदूरी करके पेट पालता हूं, मेरे विचार भी आप लोगों जैसे नहीं हैं और न तो रहन-सहन आप लोगों जैसा है? ... फिर मैं कैसे हुआ आपकी जात का आदमी?" 'क्यों' कहानी में पात्र अपने स्वाभाविक चरित्र के साथ उपस्थित है किंतु कहानीकार ने चरित्रों का जो वर्ग रूपांतरण किया है, वह खटकता है। वहां संवेदना नहीं बल्कि उसका विचार हावी है। वैसे ही ग्रामीण संरचना में ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय समाज में ' वर्ण' और 'वर्ग' के संबंधों की इतनी अधिक जटिलता है जिसे केवल सिद्धांतों से समझ पाना असंभव है। और यह एक सच्चाई है। इस दिशा में कोई सक्रिय पहल भी नहीं दिखाई देती। यहां कहानीकार का विचार प्रत्यक्ष रूप में है और इसीलिए कहानी अवश्विसनीय प्रतीत होती है। व्यक्तित्वांतरण की जटिल प्रक्रिया है। वर्ग रूपांतरण तो बाद की प्रक्रिया है जो चेतनाधारित होती है। चेतना अचानक नहीं आती। वह लंबे संघर्षों की अनुभूतियों में उपलब्ध होती है। पहले आर्थिक संबंध, फिर विचार, फिर भाव और अंत में संस्कारों के बदलने में एक लंबी अवधि से गुजरना पड़ता है।  किसी भी रचना में विषय वस्तु और लेखक के विचार-विवेक में मेरी समझ से आंतरिकता और तादात्म्य का होना आवश्यक है। 
यहां सभी लेखों और कहानियों पर टिप्पणी करना संभव नहीं है किंतु कुछ पर चर्चा इसलिए भी आवश्यक है कि आलोचना में वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया को पुनर्स्थापित किया जा सके। ' प्रतिरोध के आयाम' में विजयकांत की कहानी 'लीलावती' में यथार्थ पर चेतना के प्रभाव के बीच बनने वाले द्वंद्वात्मक संबंधों की तर्क संगति पाठक को तनिमा मंडल के मनोव्यापार, मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के भीतर झांकती हुई दिखाई पड़ती है। विजयकांत की प्रायः कहानियों में ग्रामीण संरचना में सामंती संबंधों की अभिव्यक्ति के साथ सामंती संरचना में पूंजी और सत्ता के संबंधों की जटिलता का निरीक्षण, चित्रण और प्रत‌िरोधात्मक चेतना का अनुभव पाठकीय संवेदना को झकझोरती है। इस कहानी में विजयकांत ने सामाजिक संदर्भ में 'जन' और 'तंत्र' के सूक्ष्म और स्थूल अन्तर्विरोधों को ' तनिमा मंडल' और 'गार्ड लीलाधर' के माध्यम से व्यक्त किया ह। ' तनिमा मंडल' के चरित्र के माध्यम से ऐतिहासिक सत्य का उद्घाटन हुआ है। वह स्वयं दलित है और उसकी इच्छाओं और सपनों का दमन होता रहा। उसकी सहानुभूति लीलाधर से होती है। वह अपने निजी अनुभव से वस्तुओं, संबंधों, वास्तविकताओं की नई-नई विडम्बनाओं को पहचानने लगती है। उसकी स्थानांतरित चेतना नए-नए परिवेश की टकराहट की कड़वाहट का बोध करा देती है। लेखक ने परत-दर-परत उसके अस्त‌ित्व के तिलिस्म को खोला है।' जब उसके पति ने उसके बयान द्वारा एक झूठा क्रिमिनल प्रत‌ि-संदर्भ तैयार करना चाहा',  तो वह विद्रोह कर बैठती है।... ' ध्वस्त अतीत, विकर्षक वर्तमान, अदृश्य वर्तमान के अंतराल में उसकी संवेदनात्मक चेतना में वस्तुओं को लेखक ने नये सिरे से अंतर्विरोध के एक नये बिंदु पर कसते, जूझते, टकराते हुए दिखाया है।'  वह पागल हो जाती है किंतु उसका अवचेतन में यह कहना कि ' पता करना... वी हैव टू विन द स्टेट पॉवर। समझा रे गार्डवा...।'  विमल जी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि तनिमा का सिन‌िकल एक्ट अपनी फलश्रुति से समकालीन स्थिति की वस्तुपरक दशा की व्याख्या है। इस कहानी में सामाजिक संदर्भों की विभिन्न भूमिकाओं के विश्लेषण की प्रक्रिया में यथार्थवाद की अवधारणा का विकास हुआ है। और लीलावती का रचनात्मक परिवेश और विमल जी के विवेकसम्मत व्याख्या में इसे लक्षित किया जा सकता है। ' तनिमा का चरित्र समाज के बीच अपनी मानवीय विडंबना सहित यहां आलोचक और आलोच्य दोने एक साथ बन जाते हैं। '
यथार्थ के भीतर प्रवेख कर यथार्थ के वास्तविक और विकासमान रूप को समझा जा सकता है। किसी भी लेखक के लिए अनुभूत यथार्थ, निरीक्षण क्षमता और कल्पनाशीलता का होना अनिवार्य होता है। किंतु अनुभव के साथ रचनाकार की वैयक्तिक संवेदना का तदात्मीकरण न हो तो वह प्रामाणिक नहीं होता। ' लुप्त होते लोगों की अस्म‌िता' में जो आलोच्य पुस्तक का शीर्षक भी है वस्तुतः अवध नारायण सिंह के उपन्यास ' धुंध में डूबे हुए लोग' का समीक्षात्मक विश्लेषण है। किंतु विमल जी इसे एक लंबी कहानी मानते हैं। इसे वह लंबी कहानी क्यों मानते हैं, यह अलग से विचारणीय है। इस उपन्यास या कहानी में लुप्त होते हुए लोगों की अस्म‌िता की तलाश है। पूरे उपन्यास या विमल वर्मा के शब्दों में ' कहानी' में पात्रों के परिवेश की रुग्णता को लेखक ने वास्तविक रूप से पहचाना है जो संदर्भों और संवेदना को विश्वसनीय बनाता है। अवध नारायण सिंह की यथार्थ और रचनात्मक परिवेश के साथ भाषा का व्यवहर यथार्थ की समझ को पाठकों से साझा ही नहीं करता, उन्हें उद्वेलित भी करता है। विमल वर्मा ने ' विटिंग्स्टाइन' की फिलासफिकल इन्वेस्टिगेशंस' नामक ग्रंथ से एक सटीक उद्धरण दिया है कि ' हमारी भाषा यथार्थ के प्रति हमारी दृष्टि या बोध को निर्धारित करती है क्योंकि उसके ही माध्यम से हम यथार्थ को पहचानते हैं। '  विमल वर्मा लगभग निष्कर्षतः इस कहानी की भाषा - प्रक्रिया की पड़ताल करते हुए  लिखते हैं कि ' यथार्थ के बहुविध स्तरों को एक साथ व्यक्त कर पाना कथा भाषा की मुख्य चुनौती है। रचनाकार का अभिप्राय भाषा में उद्वेलन पैदा करना है। वह उद्वेलन एक प्रतिक्रियात्मक संबंध बनाता रहता है । इस प्रकार भाषा एक प्रक्रिया में बदल जाती है। इस कहानी की भाषा प्रक्रिया इस उक्त‌ि को चरितार्थ करती है।'
अनय जी का ' तीसरा विभाजन' कहानी संग्रह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। मेरी समझ रही है कि इस संग्रह की कहानियों में जीवन, समाज और राजनीति का यथार्थ रचनात्मक चेतना के साथ उपस्थित है। इन कहानियों में सामाजिक विसंगतियों और तनावों के विभिन्न स्तर उद्घाटित हैं जो अनय जी की रचनात्मक संलग्नता के वृहत्तर आयाम का प्रतिफलन है। यहां पर ' अनादि दास का क्या हुआ' (काल बोध में प्रकाशित अनय जी की कहानी), इसराइल की 'फर्क' और रमेश उपाध्याय की  डेल्टा' में राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन की पृष्ठभूमि नक्सलबाड़ी किसान संघर्ष के आकलन से विमल वर्मा से मेरी असहमति है। 'अनादिदास' बहुत कुछ अविश्वास की सीमा तक ईमानदार और गरीब मजदूरों से प्रेम करने वाले व्यवस्था - परिवर्तन तथा अपने विश्वास और सिद्धांत के प्रति समर्पित गैर समझौतापरस्त व्यक्त‌ि है। कहानी में सत्तर का दशक तो है ही, अस्सी का दशक और उसके बाद का भी दशक है। 'अनादिदास' अभी है। एक लंबा समय बीत गया है। अनादिदास को लगता है कि ' शहर अपनी जगह पर ठीक है। लोग अपनी-अपनी जगहों पर हैं। कहीं कुछ ऐसा है, जो नहीं रहा। अन्याय को अन्याय कहने का साहस लोगों में नहीं रहा। अन्याय की पहचान भी दलगत राजनीति की सीमा में चली गयी है। दल के नेताओं की आज्ञा के बिना किसी की मौत पर रोना भी मना है।' बातें वर्ग-समाज और वर्गीय संघर्षों की की जाती हैं किंतु वहां ‌शिविरबद्धता की मुट्ठी में छटपटाती संवेदना दम तोड़ देती है। इस पर विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए। 
'अनादिदास का क्या हुआ?,  'फर्क ' और  'डेल्टा ' का उपजीव्य तेलंगाना के बाद नक्सलबाड़ी और गौरवशाली किसान संघर्ष के बारे में रचनाकारों के अपने अनुभव और आकलन व्यक्त हुए हैं। हर लेखक अपने समाज में निजी अस्मिता के साथ उपस्थित रहता है और इतिहास को, आंदोलनों और घटनाओं को अपने विशेष दृष्टिकोण से देखता है और उसका हिसाब से अर्थ तलाशने का प्रयास करता है। नक्सलबाड़ी किसान संघर्ष गलत नहीं था बल्कि इसने संसदधर्मी छद्मवाम के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष में उत्प्रेरक का काम किया है। उस आंदोलन की अपनी अंतर्निहित कमजोरियां- आतंकवादी और अराजकतावादी रुझानें रही हैं। रणनीति और रणकौशल की विच्युतियां तो थीं ह‌ी।  यहां विस्तार में जाना संभव नहीं है और न ही आवश्यक और अपेक्षित किंतु इनता अवश्य है कि उसमें फूट और बिखराव की पृष्ठभूमि में भारतीय समाज का चरित्र, क्रांति की मंजिल और संशोधनवाद से लड़ने में मार्क्सवाद की समझ के विकास तथा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के मूल्यांकन में गहरे मतभेद रहे हैं और आज इन मदभेदों की संश्लिष्टता और बढ़ी है। इस ‌पर विचार किया जाना चाह‌िए और आकलन भी होने चाह‌िए। इस संदर्भ में फिलहाल इतना ही।
'फर्क' कहानी का यथार्थ रचना-काल के वैचारिक संघर्ष और द्वंद्व का यथार्थ है।  रचनाकार की चेतना रचनात्मक यथार्थ के सत्य को तो प्रकट करती है किंतु रचनाकार की निजी राजनीतिक चेतना का हस्तक्षेप उसे विकस‌ित नहीं होने देता। कहानी में ' भूमि दखल आंदोलन', ' भूदान ' का रिपोर्ताज है। यद्यप‌ि उस काल में वामपंथी राजनीतिक दलों द्वारा भूमि दखल आंदोलन चल रहा था किंतु भूमि दखल आंदोलन किसानों की भूमि समस्य उसी तरह नहीं निपटा सकता जिस प्रकार सर्वोदयी का भूदान।  यह आज कम-आज-कम स्पष्ट हो गया है। दोनों में सूक्ष्मतः कोई फर्क नहीं है। उन्हीं दिनों ' मुसहरी' में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण की ' कैम्पिंग' भी चल रही थी। निश्च‌ित रूप से इसराइल ने भूदानी बेनी बाबू को बड़े भूस्वामियों के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित कर भूदान की सच्चाई को बेनकाब किया है। क‌िंतु ' विशू' और ' बजरू' के संवादों में वास्तव‌िक यथार्थ की अनुगूंज ‌मिलती है। क‌िंतु वह संकेत में है। उस संकेत क अर्थ खोलने (डिकोड) से वास्तव‌िक यथार्थ का उद्घाटन हो जाता है। पता नहीं विमल वर्मा ने उस संकेत को क्यों नहीं डिकोड किया। वैसे भी यह लेख बहुत पहले का है। मैं कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूं जिससे संघर्ष की जमीन से पाठक परिचित हो सकेंगे। ' हालात यहां तक नाजुक है कि ऊंची जातियों के कुछ सिरफिरे लोग भी इनका साथ दे रहे हैं' ... पंडित जी हम लोग ‌इस एमेलेपन पर थूकते हैं।'हम इतना समझ गये हैं क‌ि इसी सत्ता ने हमारा सब कुछ छीन लिया है, इसलिए सत्ता भोगियों के हाथ से इन सत्ता को छीन लो।'  स्पष्ट है, इसकी पृष्ठभूमि में संसदीय जनतंत्र  के प्रति अनास्था का स्वर ही प्रमुख है। किंतु अन्तर्क्षेपण (Interception) उसकी गति को अवरुद्ध कर देता है। और इसीलिए रचना- यथार्थ का अभिप्रेत संप्रेषित नहीं हो पाता। कहानी के अंत में बेनी बाबू जो अस्पताल में भर्ती हैं सोचते हैं- 'विशू होता तो कहता, एक दर्द हिंसक है,  और दूसरा दर्द अहिंसक।' विमल वर्मा का इसे उक्ति का चमत्कार कहना ठीक ही है और साथ ही ' व‌िशू ' और ' बजरू' को रचनाकार का रोबोट कहना भी। क्या इस उक्ति में यथार्थ का सत्य जाने- अनजाने उद्घाटित नहीं हो गया है?  
‌किसी भी रचना की अन्तर्वस्तु में रचना-दृष्टि के हस्तक्षेप की प्रभावी भूमिका होती है। ' वर्ग - समाज' में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी वर्ग के सदस्य के रूप में ही जीवन व्यतीत करता है तथा प्रत्येक प्रकार की विचारधारा पर बिना किसी अपवाद के किसी न किसी वर्ग की छाप होती है।... मनोगत और वस्तुगत, सिद्धांत और व्यवहार, जानने और कर्म करने के बीच ठोस ऐतिहास‌िक एकता कायम की जाए। (माओत्सेतुंग-व्यवहार के बारे में) यह बहुत महत्वपूर्ण है। ये बातें रमेश उपाध्याय की ' डेल्टा' कहानी के संदर्भ में है जिसे विमल वर्मा ने ' समकालीन कहानीः भाषा प्रक्रिया' में विश्लेषित किया है। इस कहानी में कहीं न ‌मनोगत और वस्तुगत संवेदना में फांक दिखाई देती है जिसे भाषा संरचना भर नहीं पाती है।  राजनीतिक  विषय पर रचना लिखने के खतरे होते हैं। इसीलिए रमेश उपाध्याय ने इस कहानी को ' डेल्टा'  के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। वस्तुतः इसमें परितोष दास गुप्ता, सौमित्र और सुचित्रा के संबंधों के त्रिभुज के माध्यम से नक्सलबाड़ी आंदोलन का आकलन प्रस्तुत करने का प्रयास है। उस आंदोलन के उठान, ढलान और बिखराव की प्रक्रिया सं‌शलिष्ट है। कोई भी आंदोलन या संगठन व्यक्तिगत संबंधों की जमीन पर नहीं खड़ा होता। उसकी जड़ें सामाजिक यथार्थ में होती हैं, उसे खाद पानी भी वहीं से मिलता है और बिखराव भी नेतृत्व के व्यक्तियों की टकराहटों से नहीं बल्कि उस सामाजिक यथार्थ की प्रकृत‌ि, गति और दिशा की भिन्न और विरोधी समझ के कारण होता है। मुझे कुमार विकल की कविता ' शताब्दी का सबसे बड़ा जादूगर' याद आती है जिसमें ' तरक्की राम'  के माध्यम से छद्म क्रांतिकारी चरित्रों को चित्रित किया गया है। कविता लंबी है । केवल कुछ पंक्तियां उद्धृत हैं-
' क्या हुआ जो उसके पास हर दुनियावी सुविधा है
लेकिन जिंदगी तो उसके लिए एक दार्शनिक दुविधा है।
सुख सुविधाओं और दुख दुविधाओं के बीच-
भटकता ' तरक्कीराम'
सुखी और उदास रहता है।
इधर कुछ दिनों से तरक्कीराम नक्सलपंथी हो गया है
'तरक्कीराम'
इस शताब्दी का सबसे बड़ा जादूगर है
जो अपने जादू से
बड़े - बड़े करतबें दिखा सकता है
मसलन बवक्ते जरूरत
गधे को बाप
और बाप को गधा बना सकता है। (' एक छोट सी लड़ाई'  काव्य संकलन में संकलित )
उस कालखंड में बहुतेरे तरक्कीराम हुए जो छद्म क्रांतिकारी के आवरण में नायकत्व की आभा बनाये रखना चाहते थे। उस आंदोलन की विफलता क्रांतिकारी सिद्धांत पर आधारित क्रांतिकारी पार्टी की निर्माण प्रक्रिया की अन्तर्वस्तु में है जिसे न तो परितोष दास गुप्ता औ न ही कहानी के नैरेशन में ही कहीं संकेतात्मक अभिव्यक्ति है। हां, कहानीकार ने जाने-अनजाने ' डेल्टा'  के निर्माण से यह अवश्य स्पष्ट करना चाहता है कि भविष्य में क्रांतिकारी फसलें भी वहीं लहलहा सकती है क्योंकि ' डेल्टा '  की जमीन में जीवनदायिनी शक्ति होती है। इस कहानी की संश्लिष्टता वही समझ सकता है जो अपनी संघर्षशील आस्था के साथ उस आंदोलन के सहयात्री रहे हैं या सहभागी रहे हैं। इसमें कथाकार के नक्सलबाड़ी आंदोलन का आत्मपरक आकलन ही प्रत‌िबिम्बित है जो अखबारी रपटों पर आधारित प्रतीत होता है।
इसी क्रम में ' वास्तविकता की जटिलताः डाक्यूड्रामा'  के संदर्भ में इस तथ्य का उल्लेख आवश्यक है कि 'डाक्यूड्रामा'  में भूमंडलीकरण द्वारा जनता को जन समाज में प‌रिवर्तित किये जाने का चित्रण उपस्थित है। आलोचक ने ठीक ही‌ लिखा है कि ' डाक्यूड्रामा' सूचना और मनोरंजन के मिले जुले रूप ' इंफोटेनमेंट'  की उत्कृष्ट कला तथा वृत्तचित्र और नाटक के मिले -जुले रूप को ' डाक्यूड्रामा'  नामक ‌नई सिनेविधा का एक श्रेष्ठ भारतीय नमूना है। इसमें सेक्स जीवन का मूल सत्य तथा फिल्म का अनिवार्य तत्व है। ' पूंजीवादी समाज में कोई भी कलाकृति बाजार की आवश्यकताओं, मांग और पूर्ति के उतार-चढ़ाव के अनुसार निर्मित होती है। कलाकार उन लोगों की रुचियों, वरीयताओं, विचारों और सौंदर्य संबंधी धारणाओं का ध्यान रखता है जो बाजार को प्रभावित करते हैं। फिल्मों में इस व्यापारीकरण की प्रक्रिया साफ दिखाई देती है। साहित्य की विधायें भी इससे अछूती नहीं हैं। बाजार की मांग के अनुसार फिल्मों में सेक्स, हिंसा और नग्नता का चित्रण जारी है। यही नहीं, लोक संस्कृति के तत्वों जैसे लोकगीत, लोकनृत्य आदि भौंडे रूप में दिखाये जाने लगे हैं। औपनिवेशिक काल या उसके बाद भी भारतीय फिल्मों का फलक भारतीय बना रहा किंतु भूमंडलीकृत समाज में विदूषक (कामेडियन) और लतीफे और संगीत की लय तक बदलने लगी है। ' डाक्यूड्रामा'  में जो पात्र हैं वे सभी ' कुलीन'  और ' उच्च मध्यवर्ग'  के हैं। उनकी जीवन शैली भी भिन्न होती है। यह सभी जानते हैं। वहां नैतिकता का कोई महत्व नहीं। निजी आकांक्षा और महत्वाकांक्षा ही सर्वोपरि है। नई आर्थिक नीति के प्रभाव में सभी वास्तविकताएं अब सतह पर दिखाई देने लगी हैं। रमेश उपाध्याय की कई कहानियों में इस यथार्थ को समझने और चित्रण का प्रयास दिखता है। रचना-शिल्प प्रश्नांकित है। किंतु इस यथार्थ को भले ही 'आभासी यथार्थ'  कहा गया हो किंतु समकालीन परिस्थितियों में दोनों लगभग मिश्रित हो गये हैं जिसे अनुभव के धरातल पर समझा जा सकता है। संभवतः डॉ नामवर सिंह इसीलिए पाठक-समुदाय से ' आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता'  की मांग करते हैं। सच तो एक ही होता है उसे अभिव्यक्त करने की अलग-अलग विधियां होती हैं। विमल वर्मा के इस कथन से असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है कि ' डाक्यूड्रामा'  में उस परिस्थितीय यथार्थ की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया गया है जो पाठ के निर्माण में उपादान बनाए गए हैं। वह यथार्थ है जो मीडिया द्वारा कामुक व्यवहार को व्यक्तिगत और सामाजिक एजेंडा बनाया जा रहा है। कहना न होगा कि ' पोर्नोग्राफी' संस्कृत‌ि पुरुष की उपचेतना बनती जा रही है।'  यह कहानी अंतर्वस्तु की समझ, मूल्यांकन, चित्रण से संबंधित शिल्प और सौंदर्य के कई प्रश्नों के पड़ताल का अवकाश देती है। अन्तर्वस्तु निरंतर परिवर्तनशील है और इसीलिए शैल्पिक गठन का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। यदि यह परिवर्तन रचना-प्रक्रिया द्वार उद्घाटित हो तो प्रभावी होती है किंतु‌ यह उतना आसान भी नहीं है। वैसे यह कहानी कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है और इसकी समीक्षा भी।  
'स्वप्न घर का लाक्षणिक पठन' में अरुण प्रकाश की कहानी स्वप्न-घर की व्याख्या आत्मीयतापूर्ण है। यहां आलोचक ने कहानीकार की ' काल्पनिक आत्म' और ' वास्तवकि आत्म' के बीच झूलने वाली स्थिति के तनाव की त्रासदी को संजीदगी से प्रस्तुत किया है। मुझे कहानी काव्यात्मक लगती है। अरुण प्रकाश एक अच्छे कवि और चिंतक थे। कहानी हो या कविता, उन्होंने सामाजिक जीवन के जीवंत पात्रों और स्थितियों को अपना उपजीव्य बनाया है. 'मैं' और ' अंजलि' के प्रेम प्रसंग के माध्यम से ' पुरुष' और ' स्त्री' के मनोवैज्ञानिक संबंधों पर गंभीर टिप्पणी है। अंजलि द्वारा कुमार विकल की क‌विता की कुछ पंक्तियों पर निशान जैसे सब कुछ स्पष्ट कर देता हैः
'मुझे लौटा दो बस
इस विशाल पृथ्वी पर
मैंने जो बसाया था
एक छोटा सा स्वप्न -घर।'
फिर भी ' स्वप्न-घर'  का मैं अपने अस्तित्व की स्थितियों को समझने के लिए बहुत बेचैन होकर भी समझ नहीं पाया। ' मैं'  और ' अंजलि'  में कौन ज्यादा व्यावहारिक या मैटीरियलिस्ट है- पाठक अपनी समझ के अनुसार ग्रहण करेंगे।
' छनती-रिसती संवेदनाएं'  में सिद्धेश जी ने 'कटा-छटा आकाश'  में  ' सभ्यता के संकट'  का जो चेहरा उभरा है, वह नया नहीं होते हुए भी इसलिए नया है कि इसमें ' रामेश्वरी' , ' बहू' और ' बेटे'  के चरित्रों और संवादों के माध्यम से रागधर्मी संवेदना को उकेरा गया है। ये सभी पात्र अतीत की नैतिक संवेदना और आज के संवेदनहीन संस्कृति की प्रवृत्ति के तनावों को झेल रहे हैं। सुमन का अपनी मां के प्रति प्यार और मां का पुत्र के प्रत‌ि प्रेम तथा उसके भावी दाम्पत्य जीवन की चिंता अपने अकेलेपन की त्रासदीपूर्ण स्थिति में संवेदनशीलता आज के युग में भी क्या महत्वपूर्ण नहीं है? जबकि बहू ठीक इसके विपरीत संस्कार और संवेदना का प्रतिनिधित्व करती है। वह एकल पारिवारिक मूल्यों की प्रतीक है। सिद्धेश जी ने इन अंतर्विरोधों के माध्यम से समकालीन सामाजिक संबंधों की विडंबना और विसंगतियों को उद्घाटित किया है। विमल वर्मा का कथन तर्कसंगतपूर्ण है कि ' सिद्धेश जी ने अंतर्विरोधों के पद में इस रचना में इतिहास को समझने की दृष्टि दी है कि संदर्भों को भावपरकता में समझा जाए।'
' माध्यम की तलाश' में मार्कण्डेय सिंह के कहानी संग्रह ' नयी ‌भूमिका ' की रचनात्मक समीक्षा है। ' मार्कण्डेय सिंह मध्यवर्ग या विषय विशेष से 'आब्सेस्ड' नहीं हैं।' वह मध्यवर्ग के घेरे को तोड़कर उस वर्ग की परिधि को छूते हैं जो पूरे समाज का नियामक है।' आलोचक के इस कथन में मार्कण्डेय सिंह के रचनात्मकता की महत्वपूर्ण इंगित है। मार्कण्डेय सिंह की कहानियों में उनके आसपास की जिंदगी रचनात्मक परिवेश के साथ अनुभूतिपरक ढंग से उपस्थित है। उनकी कहानियों में अपने बाहर और भीतर की दुनिया को पहचानने और उसके बीच संबंधों को जोड़ने की कोशिश दीखती है। ' नई भूमिका' में मास्टर सूरज बाबू और राम रतन के संबंधों और अवधारणा से लेखक ने एक नये यथार्थ की सृष्टि की है। दोनों अपनी सामाजिक विवशताओं के बंदी हैं। किंतु अन्ततः संस्कार और संवेदन के बहुस्तरीय द्वंद्व में मास्टरजी आत्मनिर्णय की चुनौती स्वीकार करते हैं और लड्डू खा लेते हैं। डॉ. नामवर सिंह ने मूल्य की परिभाषा देते हुए लिखा है कि ' किस व्य‌‌क्त‌ि-चरित्र को किस स्थ‌ित‌ि में किस प्रकार की सहानुभूति देता है और उस सहानुभूति का आधार क्या होता है, इससे कहानी का मूल्य निर्धारित होता है। ' 'नई भूमिका' में इस आधार पर मूल्य की खोज की जा सकती है और विमल वर्मा ने सही पहचाना है कि ' यह समस्या केवल इस कहानी की नहीं बल्कि समाज के क्रांतिकरी अभियान और साथ ही साथ साहित्य क्षेत्र के कलात्मक मुक्ति से जुड़ी है। इस तरह काल के साथ-साथ संघर्ष करते-करते काल और मानव चेतना का रिश्ता बदला जा सकता है।'
इस आलोच्य पुस्तक में कलकत्ता के कहानीकारों की कहानियों की चर्चा का विशेष महत्व है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि शरणबंध की कहानियां अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं। किंतु उनका एक ही कहानी संग्रह ' महामारी' प्रकाशित है जिसकी ' कुत्ते' नामक कहानी का विमल वर्मा ने विश्लेषण किया है। ' जागरूक रचनाकार और पाठक जानता है कि व्यवस्था से व्यक्ति की चेतना का विद्रोह तभी संभव होता है जब स्वाभिमान सत्ता के आक्रमण की चपेट में आता  है। विमल जी का निष्कर्ष महत्वपूर्ण है कि ' आज के लोकतंत्र में आम आदमी का स्खलन, उसकी प्रवृत्तियां कुत्ते के स्तर तक पहुंच गई हैं। अतः 'कुत्ते' शीर्षक की व्यंजना में अवमानना में दब्बूपन रौंदी हुई प्रतिष्ठा वाला भाव भोक्ता व्यक्तित्व विकृत और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। पूरी कहानी में घटनाओं के अन्तर्सबंधों, अंतर्संघातों से चरित्र की जीवंत प्रतिमा गढ़ी गई है। मेरी समझ से मनुष्य के स्वभाव का आधुनिक विश्लेषण है। शरणबंधु को मध्यवर्गीय मानसिकता की मनोवैज्ञानिक समझ गहरी है और इसे संवादों और घटनाओं के माध्यम से सहजता से अभिव्यक्त किया है। यह कहीं न कहीं स्वानुभूति भी लगती है। सच है कि 'त्रासदी के विवि‌ध रूप' में इस कहानी का 'नेटवर्क उन अनिवार्यताओं के तहत अपनी संवेदना भूमिका में इतिहास से वर्तमान के संबंधों और समय को परिभाषित करता है।'
अंतिम आलेख ' क्लॉड ईथरलीः त्रासदी का द्वंद्ववाद' में मुक्तिबोध की कहानी ' क्लॉड ईथरली' की केवल चर्चा है। लगता है कि आलोचक ने बहुत जल्दी में इसे लिखा है, इसीलिए अधूरी लगती है। उन्हें भी अवश्य लगता होगा कि लेख की भित्ति जिस तरह से निर्मित की गई है, उससे उनकी गंभीर समीक्षा की अपेक्षा थी जो संक्षिप्तीकरण में खो गई है। श्रीकांत वर्मा ने लिखा है कि मुक्तिबोध की कहानियों की प्रेरणा कहानी का कोई आंदोलन नहीं था। हर रचना उनके लिए एक भयानक शब्दहीन अंधकार को जो आज भी भारतीय जीवन के चारों ओर चीन की दीवार की तरह खींचा हुआ है- लांघने की एक और कोशिश थी। (श्रीकांत वर्मा ' सतह से उठता आदमी' कहानी संग्रह के दृष्ट‌िकोण से उद्धृत पृ.6) साम्राज्यवाद - पूंजीवाद की मुक्त बाजार-व्यवस्था की मायावी लीला तथा उनके गठजोड़ द्वारा निर्मित उपभोक्तावादी व्यवस्था की चकाचौंध में सुविधाभोगी लेखकों और बुद्धिजीवियों की स्थ‌ित‌ि दयनीय होती गयी है।   उनके भीतर की 'आग' जैसे बुझ गयी है। ऐसी संहारक व्यवस्था को पहचानते हुए भी वह उसमें सहयोगी हो जाता है क्यों‌कि ऐसे समाज में ' सामंजस्य का आदर्श ' ही प्रासंगिक जीवन विवेक बन जाता है। यह आज तो रवे की तरह स्पष्ट है।
'क्लॉड ईथरली' में कहानी नैरेटर सी.आई.डी. और 'मैं' का संवादों के माध्यम से यह स्पष्ट है कि क्लॉड ईथरली हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने वाला अमरीकी विमान चालक ही नहीं है, वह ' व्यापक अन्याय का अनुभव करने वाले लेकिन उसका विरोध न करने वाले लोगों' का प्रतीक है जो भीतर से विक्षिप्त, पाप-बोध से ग्रसित और लहूलुहान है। वह कहानीकार के शब्दों में ' सचेत जागरूक संवेदनशील जन क्लॉड ईथरली है।' सी.आई.डी. का यह कथन ' जो आदमी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुनकर हमेशा बेचैन रहा करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखानों में डाल दिया जाता है।' विमल वर्मा इसे ही त्रासदी का द्वंद्ववाद कहते हैं, जो इस कहानी की केंद्रीय संवेदना की व्यंजना है। इस कहानी में मुक्तिबोध कुछ और सवाल उठाते हैं- ' आजकल हमारे अवचेतन में हमारी आत्मा आ गई है, चेतन में स्वहित और अधिचेतन में समाज से सामंजस्य का आदर्श - भले ही वह बुरा समाज क्यों न हो! यही आज के जीवन-विवेक का रहस्य है। ' सी.आई.डी. लेखक (मैं) से बहस करते हुए कहता है कि ' कौन नहीं जानता कि क्लॉड ईथरली अणुयुद्ध का विरोध करने वाली आत्मा की विवेक का दूसरा नाम है। ईथरली मानसिक रोगी नहीं है। वह आध्यात्म‌िक अशांति का, आध्यात्म‌िक उद्व‌िग्नता का ज्वलंत प्रतीक है।'
' क्लॉड ईथरली'  में संवाद के माध्यम से जीवन-जगत की कई सच्चाइयां उद्घाटित हैं। उसमें एक स्थल पर यह भी उल्लेखित है क‌ि ' भारत अमेरिका ही है' और मुक्तिबोध इस कहानी में एक अमरीकी राजनयिक मैकमिलन की तकरीर का हवाला देते हैं कि 'यह देश हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है, किंतु संस्कृति और आत्मा से हमारे साथ है।' और यह भी कि 'भारत के हर बड़े नगर में एक अमरीका है।'  समकालीन भारतीय समाज को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि मु‌‌‌क्तिबोध का रचनाकार का काल का अतिक्रमण करता है और इस तरह इस कहानी की अन्तर्वस्तु सर्वकालिक और सर्वदेशी ही नहीं, बल्कि वर्तमान युग के संकटों का उद्घाटन भी करती है। ध्यातव्य है कि यह कहानी 1959 के आसपास लिखी गयी थी। मुक्तिबोध का यह कहना कि ' हमारे अपने-अपने मन -हृदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है जहां हम उच्च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक सभ्य, भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उसी पागलखाने में पड़े रहें।' मुक्तिबोध के पागलखाने के प्रतीकार्थों को वर्तमान के चेहरों में पढ़ा-लिखा समझा जा सकता है। 
आलोच्य पु्स्तक में विमल वर्मा ने इस लेख 'क्लाड ईथरलीः त्रासदी का द्वंद्ववाद ' में लिखा है कि ' क्लाड ईथरली ने हिरोशिमा पर बम गिराया। इससे उसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। परंतु ईथरली अपने को मानवता का संहारक समझता है। आत्मग्लानि के पऱिताप में झुलसता क्लाड ईथरली प्रायश्चित करने के लिए तरह - तरह के दुष्कांड करता है।' ' दुष्कांड' के परिप्रेक्ष्य में मुझे लगता है कि कहानी यहां कमजोर और यथार्थ से विचलित हो गयी है। मानवता की रक्षा व्यवस्था, समाज, व्यक्ति की मानसिकता, मूल्यों आचरणों द्वारा प्रबल आंदोलन द्वारा बदले जा सकते हैं।' हां, यहां उल्लेखनीय है कि एक बार सम्मान पा जाने पर जो भी गलत करे वह क्षम्य है। यही आज की संस्कृति है।' जो भी हो, कहानी विमल वर्मा की दृष्टि में यथार्थ से भले विचलित हो गयी हो किंतु यह कहानी कहीं न कहीं अमानवीयता के खिलाफ वैश्विक धरातल पर मानवता के लिए सघर्ष को उत्प्रेरित करती है और यह महत्वपूर्ण है। किन्तु विमल वर्मा की यह निरीक्षणशीलता भी महत्वपूर्ण है कि 'क्लाड ईथरली' के ताने-बाने में जो संस्कृति रची गयी है, उसमें दृश्य, अदृश्य स्वरूप तत्व में रचनाकार इतिहासबोध, संस्कृति के प्रेक्षण और आत्म निरीक्षण की लंबी यात्रा का रूपक है। यहां रूपक की विधि इसलिए अपनायी गई है । संप्रति वर्तमान में जो भविष्य है, उन्हें रूपक और प्रत्यय को एक दूसरे में विलीन कर सकें।'

मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि रचना में महत्त्व अन्तर्वस्तु का नहीं
, बल्कि अन्तर्वस्तु में समाहित होने वाले 'प्रभाव' का है। साहित्य न तो इतिहास निरपेक्ष होता है और न ही काल निरपेक्ष । टेरी इग्लटन ने लिखा है- ' पाठ यथार्थ से अपने संबंध में स्वतंत्र है। वह चरित्रों एवं परिस्थिति को स्वतंत्ररूपेण सृजित करता है, किंत वैचारिकी से अपने संबंध में स्वतंत्र नहीं। वैचारिकी से केवल वे संकल्पनाएं, सिद्धांत एवं नियम अभिप्रेत नहीं, जिनकी हम चेतना रखते हैं, अपितु सौंदर्यशास्त्र, पराभौतिकता, न्याय व्यवस्था समेत वे सारे तंत्र भी जिनके आलोक में व्यष्टि ' भोगे हुए अनुभव' की मानसिक अवधारणा स्थापित करता है। पाठ के माध्यम में प्रकट होने वाले अर्थ एवं अवधारणाएं वस्तुतः उस यथार्थ की संकल्पना की पुनर्संकल्पना होते हैं, जिन्हें वैचारिकी ने स्थापित किया है।' पाठक पाठ में सृजित वस्तु का स्वतंत्ररूपेण अर्थ ग्रहण नहीं कर सकता, वरंच कृतिकार भी मस्तिष्क में रहता है और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी जिसमें पाठ अस्तित्व में आया। अर्थग्रहण में इन सबका साथ होता है। रचनात्मक व्याख्या का लक्ष्य व्यक्त अर्थ के सच की खोज है और उसके लिए कई विचार-सरणियों से गुजरना पड़ता है ताकि व्यक्त या अव्यक्त में अन्तर्निहित सत्य की खोज की जा सके। यह प्रक्रिया सहज नहीं है बल्कि संश्लिष्ट है।
डा सुरेंद्र चौधरी ' हेमिंग्वे' की कहानी ' किलर्स ' पर ड़ॉ नामवर सिंह के दृष्टिकोण से सहमत होते हुए भी कहते हैं कि ' स्तरीय पाठ के आधार पर हम ' हत्यारों के मनोविज्ञान ' की कहानी कह सकते  हैं। किंतु कहानी का वास्तविक अर्थ उसके कथानक स्तर पर प्राप्त नहीं किया जा सकता। उसके लिए हमें पूरे सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में जीवन को देखना होगा।' आलोच्य पुस्तक में कहानियों की समीक्षा में आलोचक का यही प्रमुख दृष्टिकोण दृष्टिगत होता है।
यह पहले उल्लेखित किया जा चुका है कि डॉ. नामवर सिंह पाठक समुदाय से 'आत्मपूर्ण ग्रहणशीलता' की अपेक्षा रखते हैं। डा. सुरेंद्र चौधरी ने इसे विस्तार देते हुए स्पष्ट किया है कि " डेनिस थाम्पसन ने किसी लेखक को उद्धृत करते किया है- ' कला के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया के प्रकार में और उसकी मानवीय अस्तित्व के प्रति तत्परता में एक प्रकार का अनिवार्य संबंध होता है।" जो व्यक्ति सामान्य मानवीय अस्तित्व के प्रति भी तत्पर  (अर्थात सचेत ) नहीं, वह कला के प्रति भी तत्पर नहीं हो सकता। मेरी दृष्टि में यही तत्परता उसकी 'ग्रहणशीलता' को आत्मपूर्ण बनाती है। ... ' कहानी की पाठ - प्रक्रिया में सजगता, आत्मनिर्णय की सक्षमता और कला - संवेदना के प्रति क्रियात्मक तत्परता की आवश्यकता होती है। हिंदी में कहानियों की पाठ संबंधी समस्याओं पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया है।' आलोच्य पुस्तक में  विमल वर्मा न कहानी के विश्लेषण में भाषा, मनुष्य की चेतना के साथ ही पाठ तथा पठन-प्रक्रिया में इतिहास, सामाजिक -सांस्कृतिक संरचनाओं  को ध्यान में रखा है। साथ ही भाषिक संरचना का भी यत्रवत प्रयोग नहीं किया है। उन्होंने अभी तक विकसित और प्रचलित अवधारणाओं का प्रयोग अपनी जमीन पर किया है। मुक्तिबोध ने कला को जीवन की पुनर्रचना कहा है। ' उत्तर संरचनावादियों की एक महत्वपूर्ण स्थापना है कि हर पाठक अपने लिए रचना की पुनर्रचना करता है। इसका मतलब यह है, अपने अनुसार अर्थ की खोज करना । यही उसकी पुनर्रचना है। ' ( उत्तर संरचनावाद को क्यों और कैसे पढ़ें', पल प्रतिपल संयुक्तांक 20-21, अप्रैल - सितंबर 1992 में डा. मैनेजर पाण्डेय का साक्षात्कार) विमल वर्मा ने प्रायः कहानियों की पुनर्रचना के माध्यम से उसके अर्थ के सच की खोज उसके समकालीन परिवेश में सजगता और संवेदनशीलता के साथ ऐतिहासिक परिस्थितियों में दर्शन की गहरी समझ के साथ किया है। आलोच्य पुस्तक ' लुप्त होते लोगों की अस्मिता' में सामाजिक- सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक वास्तविकताएं एवं भावी संभावनाओं की ओर संकेत को लक्षित किया जा सकता है।
'लुप्त होते लोगों की अस्मिता' में विमल वर्मा के समीक्षात्मक विवेक और दायित्व परिलक्षित हैं और इस पर चर्चा अपेक्षित है ताकि वाद-विवाद- संवाद के माध्यम से आलोचनात्मक चेतना विकसित हो सके।

समीक्षित कृतिः ' लुप्त होते लोगों की अस्मिता'
लेखकः विमल वर्मा
समीक्षकः परशुराम
प्रकाशकः लोकमित्र, 1/6588 , पूर्वी रोहतास नगर,
शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य - 495 रुपये मात्र

समीक्षक संपर्कः 140/1, रामकृष्णपुर लेन, शिवपुर, हावड़ा-711102 (पश्चिम बंगाल)
मोबाइल नंबरः 9433708453

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