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आलोक वर्मा किसी गांव में एक बनिया रहता था। उसके दो बेटे विजय और संजय थे। विजय जब कुछ बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता की मौत हो गई। माता-पिता की मृत्यु के बाद विजय ने छोटे भाई संजय का लालन-पालन किया। बड़े भाई के दुलार ने छोटे को कभी माता-पिता की कमी महसूस नहीं होने दिया। इस लाड़ प्यार ने उसे आलसी और कामचोर बना दिया। संजय की गलतियों को विजय  हमेशा बच्चा समझकर इग्नोर कर देता और कुछ नहीं बोलता। ‌विजय ने पिता के पुश्तैनी कामकाज को संभाल लिया। पिता की दुकान को नये सिरे से जमाया और जो थोड़ी बहुत जमीन थी उस पर खेती करना शुरू कर दिया। जब घर की स्थिति थोड़ी ठीक हुई तो लोगों ने विजय की शादी सुशीला नामक एक लड़की से कर दी। अब बाहर की जिम्मेदारी विजय और घर के भीतर की जिम्मेदारी सुशीला ने संभाल ‌लिया। विजय दुकान चला जाता। सुशीला घर में रहती और सब काम देखती। लेकिन छोटे भाई संजय की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं आया। उसका मन पढ़ाई में  नहीं लगता था। धीरे- धीरे उसने स्कूल जाना बंद कर दिया। भाभी ने उसे बहुतेरे तरीके से समझाने की कोशिश की कि वह पढ़ाई जारी रखे। लेकिन संजय कुछ सुनने के लि ए तैयार नहीं था

परिवर्तन और निरंतरता का द्वंद्वः लुप्त होते लोगों की अस्मिता

- परशुराम आलोचना , वाद-विवाद और संवाद की संस्कृति है। जड़ और ठहरे मूल्यों के विघटन और युगीन संदर्भों में नये मूल्यों के सृजन और विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक संबंध होता है। यदि रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक वैचारिक संघर्ष नहीं है तो साहित्य की तत्कालीन परंपरा की विकास -गति अत्यधिक धीमी पड़ जाती है। रचना की तरह आलोचना भी एक सांस्कृतिक परंपरा है और आलोचना इसमें अपनी सक्रिय भूमिका तभी निभा सकती है जब वह केवल स्वीकृत‌ि न दे , सवाल भी उठाये और मिथ्या स्वीकृत‌ि को चुनौती भी दे।  वरिष्ठ हिंदी आलोचक विमल वर्मा की आलोच्य पुस्तक " लुप्त होते लोगों की अस्मिता" में इसका अनुभव किया जा सकता है। फिर भी आलोचना के संकट को लेकर जिस तरह और जिन प्रश्नों को रेखांक‌ित किया जा रहा है , उस पर संक्षिप्त चर्चा भी आवश्यक है। हम एक राजनीतिक समय में रह रहे हैं। इसल‌िए रचना और आलोचना तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों से अछूती नहीं रह सकती। अपने समय का पक्ष या प्रतिपक्ष उपस्थित रहता ही है। ऐसे समय में आलोचना केवल साहि‌त्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं होगी बल्कि वह राज