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सामयिक परिदृश्यः वर्तमान सामाजिक चुनौतियों से रूबरू कराती एक पत्रिका

आलोक वर्मा हिंदी में लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन हमेशा से कठिन काम रहा है और वर्तमान में तो और भी कठिन हो चुका है। लेकिन फिर भी अभी भी कुछ लोग लघु पत्रिकाएं निकाल ही रहे हैं। आज जबकि सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफार्म बनकर उभरा है जहां आप जो चाहें लिख सकते हैं। वहां किसी तरह का दबाव नहीं है। सोशल मीडिया में लिखने की आजादी तो मिल गई लेकिन गुणवत्ता पर असर पड़ा है। जिसके मन में जो आता है उसे लिख डालता है। ऐसे में एक लंबे समय के लिए साहित्य को संजोये रखने में खासतौर पर वैचारिक स्तर पर लघु पत्रिकाओं की भूमिका और बढ़ गई है। वैसे तो आज के समय में साहित्य का नाम लेते ही एक खास विचार वाले आप पर पिल पड़ेंगे। उससे भी ज्यादा खतरा उनसे है जो गैरराजनीति का नारा देते हैं। अगर वर्तमान हालात पर नजर डालें तो देश की दशा भी अच्छी नहीं है। हर तरफ असंतोष है, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने जनजीवन को त्रस्त कर रखा है। किसान मजदूर, व्यापारी से लेकर युवा तक हलाकान हैं। लेकिन कोई सुनवाई नहीं है। सरकारी तंत्र प्रताड़ित करने में लगा है तो विपक्ष कूढ़मगजी का शिकार है। आम आदमी किससे दुखड़ा रोये। पिछले कई सालों से
उपचुनावों के मायनेः आलोक वर्मा राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार के लोकसभा के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं रहे। यूपी में सपा - बसपा गठजोड़ ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को ऐसी करारी शिकस्त दी कि यह इतिहास बन गया। योगी आदित्यनाथ बुआ -बबुआ तथा सांप छंछूदर का तंज कसते रह गए और जब परिणाम आया तो उनका गढ़ भी नहीं बचा। लेकिन इसे आश्चर्य के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। 2014 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दिल्ली से लेकर लखनऊ तक के भाजपा नेता अहंकारी मुद्रा में आ गए थे। सत्ता में आने के बाद हिंदुत्व के सबसे बड़े पोस्टर ब्वाय बनकर उभरे योगी ने कई गल्तियां कीं। एक साल के अंदर योगी सरकार ने बुजुर्गों की पेंशन बंद कर दी। विद्यार्थियों को स्कालरशिप नहीं दी। किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिला। इन सबसे यूपी की जनता सरकार से नाराज है लेकिन यह बात सरकार में बैठे लोगों को समझ में नहीं आई। आरोप है कि कानून व्यवस्था सुधारने के नाम पर पूरे प्रदेश में एनकाउंटर के खेल में गरीब और दलित तबके के लोगों को निश