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यादों के झरोखों में ‘सब जग जलता देखिया’

आलोक वर्मा संस्मरण के दायरे में क्या आना चाहिए ? आखिर संस्मरण लिखा जाए तो उनमें किन बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए ? क्या संस्मरण के नाम पर सिर्फ कीचड़ उछालने का काम किया जाना चाहिए ? क्या सिर्फ पुराना हिसाब चुकता करने के लिए संस्मरण लिखा जाना चाहिए ? क्या उसमें तत्कालीन विसंगतियों, चुनौतियों, संघर्षों तथा उनका मुकाबला करने वालों के योगदान को नकार कर सिर्फ अपनी यशोगाथा दूसरे की निंदा ही संस्मरण लिखने का मूल उद्देश्य होना चाहिए ? डा. शुकदेव सिंह के संस्मरण की पुस्तक ‘ सब जग जलता देखिया ’ को पढ़ते समय ये कुछ प्रश्न सहज मन में उठते हैं। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलू को अगर नजरअंदाज भी कर दें तो कम से कम साहित्यिक दुनिया और वातावरण का खाका तो खींचा ही जाना चाहिए ताकि अगली पीढ़ी को भूतकाल से वर्तमान का आंकलन करन में सहूलियत हो।   वैसे सच तो यह है कि अगर हम राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वातावरण का विवेचन नहीं करेंगे तो साहित्य के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। फिर उसका हश्र वही होगा जो शुकदेव सिंह की पुस्तक ’ सब जग जलता देखिया ’ का हुआ है। वह पुस्तक एक पक्षीय बयानबाजी भर रह

सामाजिक यथार्थ की प्रतिनिधि कहानियां

आलोक वर्मा शेखर जोशी ‘ नई कहानी ’ के कथाकारों में से एक हैं। शायद वे अकेले कहानीकार हैं, जिसने नई कहानी के दौर में लिखना शुरू किया और आज भी उसी सक्रियता के साथ रचनारत हैं, जबकि अमरकांत जैसे एकाध कहानीकारों को छोड़ दिया जाए तो उस दौर के अधिकांश कथाकार पिछले कई सालों से ‘ न लिखने के कारण ‘ पर मनन कर रहे हैं। शेखर जोशी की पहली कहानी ‘ दाज्यू ‘ 1953-54 में छपी थी और अपनी पहली क हानी से वे चर्चित हो गए थे। अमूमन उनकी प्रकाशित सभी कहानियां चर्चा के केंद्र में रहती हैं। शेखर जोशी चूंकि नई कहानी आंदोलन की देन हैं, इसलिए उनकी कहानियों में उस दौर की प्रवृत्तियों का पाया जाना लाजिमी है। लेकिन किसी खास दौर की प्रवृत्ति में बंधकर वे नहीं रहे। उन्होंने समय की रफ्तार के साथ बदलते जीवन को देखा, परखा और जीवन की उसी संवेदना को, समाज को, समाज की उसी विडंबना को कहानियों के माध्यम से विश्लेषित किया। इस बारीक पकड़ ने ही उन्हें सदैव शीर्षस्थ कहानीकार बनाए रखा। अपने रचनाकर्म के बारे में शेखर जोशी ने लिखा है- ‘ छोटी उम्र में मातृविहीन हो जाने के बाद पर्वतीय अंचल के प्राकृतिक सौंदर्य से वनस्पतिव

साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण का विकल्पः ‘काल-बोध’

आलोक वर्मा संप्रति यूरोपीय महादेशों में समाज वैज्ञानिक एक गंभीर बहस में उलझे हुए हैं। यह बहस ‘ मास सोसायटी ’ और ‘ मास कल्चर ’ के नाम से चलाई जा रही है। समाजशास्त्रियों का मानना है कि पूंजीवादी उत्पादन के कारण समाज अराजकता की चपेट में कसता जा रहा है। इस अराजकता से शून्य की स्थिति पैदा हो रही है। आज दुनिया इतनी छोटी होती जा रही है कि इस समस्या की उपेक्षा हम भी नहीं कर सकते। विज्ञापन और बाजार के माध्यम से पूंजीवादी ‘ पब्लिक ओपीनियन ’ पैदा कर समूचे राष्ट्र में गृह युद्ध की संभावना तैयार कर रहे हैं। अर्थात देश-विदेश में जो तनाव और द्वंद्व चल रहा है, उस क्रांतिकारी परिस्थिति को कैसे प्रतिक्रांतिकारिता में परिवर्तित कर दिया जाए। इसके साथ सूचना साम्राज्यवाद की भी अवतारणा कर दी गई   है। इसके माध्यम से वस्तुओं के साथ – साथ मनुष्य के ज्ञान चेतना, जीवन मूल्य तथा आशा आकांक्षा पर आधिपत्य स्थापित किया जा रहा है। हमारे संस्कृति जगत के सभी कार्यकर्ताओं का ध्यान उधर क्यों नहीं पहुंच पा रहा है ? कुछ लोग अवश्य साहित्य और संस्कृति के ऊपर साम्राज्यवादी अभियान से विचलित हो उठे हैं। वे इस प्र

वामपंथी सोच की लक्ष्मण रेखा

नोटः इस समय माकपा की दो दिन की पार्टी कांग्रेस हैदराबाद में शुरू हुई है जिसमें पार्टी की बेहतरी और विस्तार को लेकर आगे की रणनीतियों पर विचार किया जाएगा। पार्टी ने पहले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के हाथों सत्ता गंवाई और फिर अभी कुछ माह पहले त्रिपुरा में भाजपा के हाथों हार गई। सरकार में होने के बावजूद केरल की स्थिति भी इस समय बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। वैसे तो राजनीति में हार जीत लगी रहती है। लेकिन माकपा के बारे में ऐसा नहीं कह सकते। यह पार्टी अपनी भूलों से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं दिख रही। इस पार्टी द्वारा ऐतिहासिक भूल करने का रिकार्ड बनता जा रहा है। इसके कुछ नेता जिनका कोई जनाधार नहीं है वे शीर्ष पर विराजमान हैं। उऩके हठ और बेतुके फैसलों के चलते पार्टी का जनाधार लगातार सिकुड़ता जा रहा है। एकला चलो की नीति के कारण पश्चिम बंगाल में तो उनके कार्यकर्ताओं के जान के लाले पड़ गये हैं। लेकिन एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर फैसले लेने वाले आपसी हिसाब किताब बराबर करने में लगे हुए हैं जिसका खामियाजा कार्यकर्ताओं को भुगतना पड़ रहा है। नीचे मैं अपना एक लेख दे रहा हूं। यह लेख 2004 में लिखा

मैंने व्यक्ति के माध्यम से समाज को देखने की कोशिश की है

कथाकार अवध नारायण सिंह की सष्ठिपूर्ति के मौके पर वर्ष 1992 में यह इंटरव्यू लिया गया था। इसके कुछ साल बाद अवध नारायण जी अपने गांव रवेली जिला वाराणसी (वर्तमान में संत कबीर नगर( भदोही) चले गए और अब वहीं रह रहे हैं। यह साक्षात्कार कलकत्ता के दैनिक छपते-छपते में 28 जनवरी 1992 को प्रकाशित हुआ था। आलोक वर्मा/नरेंद्र प्रसाद सिंह प्रश्नः आपके बचपन और ग्रामीण जीवन के संबंध में हम लोग जानना चाहते हैं।  अवध नारायण सिंह- मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था। ऐसी परिस्थिति में जैसे दूसरे किसान बच्चों का पालन -पोषण , शिक्षा दीक्षा होती है ठीक वैसी ही बात मेरे साथ हुई। बचपन की कोई उल्लेखनीय घटना नहीं है जिसके बारे में कहा जाए। हां, तब का ग्रामीण जीवन बहुत सादा एवं सामान्य था। सामंती रुचि  के तहत तब का ग्रामीण जीवन चलता था। मुझे ऐसा लगता है कि उसे समय सौ पचास वर्षों में भी कोई खास परिवर्तन नहीं होता था। बहुत कुछ स्थिर समाज ही कहा जा सकता है। आजादी के बाद जो मूल्यगत परिवर्तन जीवन में हुए हैं वे उस समय के समाज में नहीं थे। लोगों में सहज आत्मीयता थी। प्रेम था और आपसी कलह भी होती थी तो किसी बड़े

राजनीति में महिलाएं रास्ते पर बाधाएं बहुत हैं

आलोक वर्मा इस पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं की बेहतरी के लिए चाहे जितना भी प्रयास किए जाएं, कोई खास फर्क नहीं पड़ता। महिलाएं आज भी पददलित और शोषित ही हैं। वैसे तो वे आबादी का आधा हिस्सा हैं, लेकिन पुरुषों ने उन्हें हाशिए पर धकेल रखा है। इसके लिए बीजिंग में आयोजित विश्व महिला सम्मेलन में भारत की तरफ से प्रस्तुत कुछ आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा। भारत में एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 927 है। बच्चों की मृत्यु दर में लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा काफी अधिक है। स्वतंत्रता के बाद निरक्षरता में काफी कमी आई है, इसके बावजूद महिलाओं की साक्षरता दर काफी कम है। नौकरियों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की दर दोगुणा है। प्रबंधन क्षेत्र में पुरुषों की संख्या महिलाओं की पांच गुणा है।  आज भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़ा दी जाती है। इसके बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियां लगातार लड़कों से अव्वल आ रही हैं। आज भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज्यादा बेरोजगार हैं। लड़कियों/महिलाओं के साथ पक्षपात के ये आंकड़े यहीं खत्म नहीं होते, इनकी सूची बड़ी लंबी है। क्या का

बेरहम व्यवस्था नरक भोगता बचपन

आलोक वर्मा इंतहा हो गई अमानवीयता की। चाहे पुलिस हो, प्रशासन हो या सरकार, उत्तर प्रदेश के नोएडा के निठारी गांव में मासूमों का अपहरण, बलात्कार और फिर हत्या के मामले प्रकाश में आने से बच्चों की जिंदगी को लेकर उनकी पराकाष्ठा ही उजागर हुई है। क्या व्यवस्था इतनी बेरहम हो सकती है? क्या सचमुच बच्चों की जिंदगी के प्रति शासन-प्रशासन को इस तरह लापरवाही बरतनी चाहिए? क्या पुलिस- प्रशासन के लिए केवल पैसे वालों के बच्चों की जान की कीमत है, बाकी को पशु सदृश मान लिया गया है। बच्चे जिन्हें राष्ट्र का भविष्य माना जाता है उनके प्रति सरकारों और उनके प्रशासनिक अमले का क्या दायित्व है, क्या दृष्टिकोण है इस पर बहस होनी चाहिए। अगर कोई जिम्मेदारी है तो उसका निर्वहन कैसे किया जा रहा है, इस पर विचार करन की जरूरत है। निठारी कांड ने देश में व्यवस्था की पोल पट्टी खोल दी है। ऐसे जघन्य कांड को व्यवस्था की  बेशर्मी की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा। निठारी कांड ऐसे सवाल छोड़ गया है जिसकी तह में जाने के लिए कई बातों पर विचार करना पड़ेगा। सच यह है कि लाखों बच्चे देह व्यापार में लगे हैं। इतने सालों से बाल श्रम की समस्या

बालश्रम मजबूरी में मजदूरी या कुछ और

आलोक वर्मा कोहरे से ढकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह- सुबह ! बच्चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयावह है इसे विवरण की तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे एक सवाल की तरह काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे ? हिंदी के एक युवा कवि की यह मात्र कपोल कल्पना नहीं है, बल्कि व्यवस्था के कटु यथार्थ से परिचय कराती है यह कविता। यह एक सवाल है और यह सवाल किसी एक देश पर लागू नहीं होता । पूरी दुनिया इसकी चपेट में है। विश्वभर में बच्चों के खेलने -कूदने और पढ़ने -लिखने की उम्र में मजदूरी करने को विवश होना पड़ रहा है। बाल- श्रमिकों के नाम पर परिभाषित पांच से चौदह वर्ष की उम्र के बच्चे अपने अरमानों का गला घोंटकर, भविष्य दांव पर लगाकर पेट भरने के लिए मेहनत-मजदूरी को मजबूर हैं। दिलचस्प यह है कि जैसे-जैसे राष्ट्र तरक्की (विकास-शील) की डगर पर बढ़ रहे हैं, उसी गति से बाल-श्रमिकों की संख्या भी बढ़ रही है। आज दुनिया में बाल श्रमिकों की अधिकतम दर अफ्रीका में है। इसके बाद एशिया और लातिनी अमेरिका की बारी आती है। मगर श्रम-शक्ति में बच्चों की अधिकतम संख्या भारत में है। स्थिति