आलोक वर्मा हिंदी में लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन हमेशा से कठिन काम रहा है और वर्तमान में तो और भी कठिन हो चुका है। लेकिन फिर भी अभी भी कुछ लोग लघु पत्रिकाएं निकाल ही रहे हैं। आज जबकि सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफार्म बनकर उभरा है जहां आप जो चाहें लिख सकते हैं। वहां किसी तरह का दबाव नहीं है। सोशल मीडिया में लिखने की आजादी तो मिल गई लेकिन गुणवत्ता पर असर पड़ा है। जिसके मन में जो आता है उसे लिख डालता है। ऐसे में एक लंबे समय के लिए साहित्य को संजोये रखने में खासतौर पर वैचारिक स्तर पर लघु पत्रिकाओं की भूमिका और बढ़ गई है। वैसे तो आज के समय में साहित्य का नाम लेते ही एक खास विचार वाले आप पर पिल पड़ेंगे। उससे भी ज्यादा खतरा उनसे है जो गैरराजनीति का नारा देते हैं। अगर वर्तमान हालात पर नजर डालें तो देश की दशा भी अच्छी नहीं है। हर तरफ असंतोष है, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने जनजीवन को त्रस्त कर रखा है। किसान मजदूर, व्यापारी से लेकर युवा तक हलाकान हैं। लेकिन कोई सुनवाई नहीं है। सरकारी तंत्र प्रताड़ित करने में लगा है तो विपक्ष कूढ़मगजी का शिकार है। आम आदमी किससे दुखड़ा रोये। पिछले कई सालों से ...