उपचुनावों के मायनेः आलोक वर्मा
राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार के लोकसभा के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं रहे। यूपी में सपा - बसपा गठजोड़ ने
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को ऐसी करारी शिकस्त दी कि यह इतिहास बन गया। योगी
आदित्यनाथ बुआ -बबुआ तथा सांप छंछूदर का तंज कसते रह गए और जब परिणाम आया तो उनका गढ़ भी नहीं बचा। लेकिन
इसे आश्चर्य के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। 2014 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दिल्ली
से लेकर लखनऊ तक के भाजपा नेता अहंकारी मुद्रा में आ गए थे। सत्ता में आने के बाद हिंदुत्व के सबसे बड़े पोस्टर ब्वाय
बनकर उभरे योगी ने कई गल्तियां कीं।
एक साल के अंदर योगी सरकार ने बुजुर्गों की पेंशन बंद कर दी। विद्यार्थियों को स्कालरशिप नहीं दी। किसानों को उनकी उपज
का उचित मूल्य नहीं मिला। इन सबसे यूपी की जनता सरकार से नाराज है लेकिन यह बात सरकार में बैठे लोगों को समझ में
नहीं आई। आरोप है कि कानून व्यवस्था सुधारने के नाम पर पूरे प्रदेश में एनकाउंटर के खेल में गरीब और दलित तबके के लोगों
को निशाना बनाया गया है। सरकार के कामकाज से जनता नाराज है यह बात नेतृत्व समझ ही नहीं पाया। संगठन से कार्यकर्ता
नाराज है।
प्रत्याशी चयन में भी भाजपा नेतृत्व उल्टा कर गया। जातीय समीकरण का ध्यान भी नहीं रखा। गोरखपुर में ऐसे व्यक्ति को
टिकट दे दिया जिसे योगी आदित्यनाथ पसंद नहीं करते थे। एक सबसे प्रमुख कारण हिंदू युवा वाहिनी के नेताओं कार्यकर्ताओं
का निष्क्रिय होना भी रहा। जहां जनता हिंदू युवा वाहिनी की सतायी हुई थी, वहीं राजनीति में प्रतिनिधित्व न मिलने से युवा
वाहिनी के लोग नाराज थे। इसका असर ये रहा कि दोनों ने भाजपा उम्मीदवार का साथ नहीं दिया।
भाजपा नेतृत्व को सपने में भी अंदाजा नहीं था कि मायावती और अखिलेश (सपा-बसपा ) के बीच गठजोड़ हो सकता है। ये
लोग इस गलतफहमी में भी थे कि अगर ऐसा होता भी है तो दोनों दल एक दूसरे का वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे। गोरखपुर
लोकसभा सीट देश में भाजपा के एक ऐसे गढ़ के रूप में थी जहां उसका हारना नामुमकिन माना जाता था। इस सीट पर पिछले
29 साल से महंत परिवार का कब्जा था। 1989, 1991 और 1996 का चुनाव महंत अवैद्यनाथ जीता तो 1998 से 2014
तक लगातार पांच चुनाव योगी आदित्यनाथ विजयी हुए।
लेकिन इस असंभव को संभव अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग ने बनाया। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 2017 के
विधानसभा चुनाव में करारी हार से सबक लिया और समाजवादी पार्टी को यादव पार्टी के तौर पर मिली बदनामी से छुटकारा
दिलाने का काम शुरू किया। इसके तहत उन्होंने ओबीसी जातियों की एकता के लिए काम शुरू किया। त्रि-शक्ति सम्मेलन के
नाम से ओबीसी सम्मेलन के पीछे उनका हाथ रहा। इन सम्मेलनों में इस वर्ग की जातियों को देश की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति
बताते हुए यादव-निषाद-सैंथवार-पटेल-राजभर-मौर्य-विश्वकर्मा-प्रजापति-जायसवाल-गुप्ता-कुर्मी आदि जातियों की एकता
बनाने पर जोर दिया गया और उनको अपने साथ जोड़ा। इसी कड़ी में प्रवीण निषाद को गोरखपुर से टिकट दिया ।
तकरीबन यही स्थिति फूलपुर की रही। वहां पटेल उम्मीदवार ले आए जो बाहरी था और सपा ने चुनाव में स्थानीय बनाम बाहरी
का मुद्दा बना दिया। मुसलमानों का वोट काटने के लिए भाजपा ने आखिरी दिन अतीक अहमद को निर्दलीय उम्मीदवार के तौर
पर मैदान में उतारा, अतीक उसमें कुछ हद तक सफल भी रहे लेकिन फिर भी मुसलमानों ने सपा प्रत्याशी को वोट दिया।
कुछ सवाल और हैं जिन पर अभी कोई चर्चा नहीं कर रहा है लेकिन सोशल मीडिया पर मजाक के तौर पर गूंज रहे हैं। आखिर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपाध्यक्ष अमति शाह गोरखपुर और फूलपुर में प्रचार करने क्यों नहीं गए? कहीं दोनों को लेकर
केंद्रीय नेतृत्व आशंकित तो नहीं था। याद होगा कि यूपी का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ का नाम मोदी के विकल्प
के तौर पर लिया जाने लगा था। मोदी के बाद भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर पर योगी ने पहले गुजरात विधानसभा के चुनाव
के दौरान प्रचार किया तो बाद में मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में। केरल और कर्नाटक में भी वे प्रचार करने गए। लेकिन अब
सवाल उठेगा कि जो व्यक्ति अपनी संसदीय सीट पर जीत नहीं दिला सकता वह दूसरे राज्यों में क्या जीत दिलवाएगा। इसके
साथ ही दिल्ली की रेस में अब वे पिछड़ जाएंगे। यही हाल केशव प्रसाद मौर्य का था। वह मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में रहे। उप
मुख्यमंत्री पद से वह संतुष्ट भी नहीं थे। लेकिन अब उनकी कितनी पूछ होगी यह विचार का विषय है। इसके साथ ही दोनों के
नेतृत्व को लेकर सवाल जरूर उठेंगे, पिछले हालात नहीं रहेंगे।
उधर बिहार में भी एनडीए गठबंधन को लालू ने ध्वस्त कर दिया। वहां इस बार नीतीश कुमार और सुशील मोदी की जोड़ी कोई
करिश्मा नहीं दिखा सकी। उपचुनाव ने एक बात तो साबित कर दिया कि लालू का वोट बैंक बरकरार है और 2019 के
लोकसभा चुनाव में मोदी और उनकी टीम 2014 नहीं दुहरा पाएगी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को ऐसी करारी शिकस्त दी कि यह इतिहास बन गया। योगी
आदित्यनाथ बुआ -बबुआ तथा सांप छंछूदर का तंज कसते रह गए और जब परिणाम आया तो उनका गढ़ भी नहीं बचा। लेकिन
इसे आश्चर्य के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। 2014 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद दिल्ली
से लेकर लखनऊ तक के भाजपा नेता अहंकारी मुद्रा में आ गए थे। सत्ता में आने के बाद हिंदुत्व के सबसे बड़े पोस्टर ब्वाय
बनकर उभरे योगी ने कई गल्तियां कीं।
एक साल के अंदर योगी सरकार ने बुजुर्गों की पेंशन बंद कर दी। विद्यार्थियों को स्कालरशिप नहीं दी। किसानों को उनकी उपज
का उचित मूल्य नहीं मिला। इन सबसे यूपी की जनता सरकार से नाराज है लेकिन यह बात सरकार में बैठे लोगों को समझ में
नहीं आई। आरोप है कि कानून व्यवस्था सुधारने के नाम पर पूरे प्रदेश में एनकाउंटर के खेल में गरीब और दलित तबके के लोगों
को निशाना बनाया गया है। सरकार के कामकाज से जनता नाराज है यह बात नेतृत्व समझ ही नहीं पाया। संगठन से कार्यकर्ता
नाराज है।
प्रत्याशी चयन में भी भाजपा नेतृत्व उल्टा कर गया। जातीय समीकरण का ध्यान भी नहीं रखा। गोरखपुर में ऐसे व्यक्ति को
टिकट दे दिया जिसे योगी आदित्यनाथ पसंद नहीं करते थे। एक सबसे प्रमुख कारण हिंदू युवा वाहिनी के नेताओं कार्यकर्ताओं
का निष्क्रिय होना भी रहा। जहां जनता हिंदू युवा वाहिनी की सतायी हुई थी, वहीं राजनीति में प्रतिनिधित्व न मिलने से युवा
वाहिनी के लोग नाराज थे। इसका असर ये रहा कि दोनों ने भाजपा उम्मीदवार का साथ नहीं दिया।
भाजपा नेतृत्व को सपने में भी अंदाजा नहीं था कि मायावती और अखिलेश (सपा-बसपा ) के बीच गठजोड़ हो सकता है। ये
लोग इस गलतफहमी में भी थे कि अगर ऐसा होता भी है तो दोनों दल एक दूसरे का वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे। गोरखपुर
लोकसभा सीट देश में भाजपा के एक ऐसे गढ़ के रूप में थी जहां उसका हारना नामुमकिन माना जाता था। इस सीट पर पिछले
29 साल से महंत परिवार का कब्जा था। 1989, 1991 और 1996 का चुनाव महंत अवैद्यनाथ जीता तो 1998 से 2014
तक लगातार पांच चुनाव योगी आदित्यनाथ विजयी हुए।
लेकिन इस असंभव को संभव अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग ने बनाया। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 2017 के
विधानसभा चुनाव में करारी हार से सबक लिया और समाजवादी पार्टी को यादव पार्टी के तौर पर मिली बदनामी से छुटकारा
दिलाने का काम शुरू किया। इसके तहत उन्होंने ओबीसी जातियों की एकता के लिए काम शुरू किया। त्रि-शक्ति सम्मेलन के
नाम से ओबीसी सम्मेलन के पीछे उनका हाथ रहा। इन सम्मेलनों में इस वर्ग की जातियों को देश की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति
बताते हुए यादव-निषाद-सैंथवार-पटेल-राजभर-
बनाने पर जोर दिया गया और उनको अपने साथ जोड़ा। इसी कड़ी में प्रवीण निषाद को गोरखपुर से टिकट दिया ।
तकरीबन यही स्थिति फूलपुर की रही। वहां पटेल उम्मीदवार ले आए जो बाहरी था और सपा ने चुनाव में स्थानीय बनाम बाहरी
का मुद्दा बना दिया। मुसलमानों का वोट काटने के लिए भाजपा ने आखिरी दिन अतीक अहमद को निर्दलीय उम्मीदवार के तौर
पर मैदान में उतारा, अतीक उसमें कुछ हद तक सफल भी रहे लेकिन फिर भी मुसलमानों ने सपा प्रत्याशी को वोट दिया।
कुछ सवाल और हैं जिन पर अभी कोई चर्चा नहीं कर रहा है लेकिन सोशल मीडिया पर मजाक के तौर पर गूंज रहे हैं। आखिर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपाध्यक्ष अमति शाह गोरखपुर और फूलपुर में प्रचार करने क्यों नहीं गए? कहीं दोनों को लेकर
केंद्रीय नेतृत्व आशंकित तो नहीं था। याद होगा कि यूपी का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ का नाम मोदी के विकल्प
के तौर पर लिया जाने लगा था। मोदी के बाद भाजपा के स्टार प्रचारक के तौर पर योगी ने पहले गुजरात विधानसभा के चुनाव
के दौरान प्रचार किया तो बाद में मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में। केरल और कर्नाटक में भी वे प्रचार करने गए। लेकिन अब
सवाल उठेगा कि जो व्यक्ति अपनी संसदीय सीट पर जीत नहीं दिला सकता वह दूसरे राज्यों में क्या जीत दिलवाएगा। इसके
साथ ही दिल्ली की रेस में अब वे पिछड़ जाएंगे। यही हाल केशव प्रसाद मौर्य का था। वह मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में रहे। उप
मुख्यमंत्री पद से वह संतुष्ट भी नहीं थे। लेकिन अब उनकी कितनी पूछ होगी यह विचार का विषय है। इसके साथ ही दोनों के
नेतृत्व को लेकर सवाल जरूर उठेंगे, पिछले हालात नहीं रहेंगे।
उधर बिहार में भी एनडीए गठबंधन को लालू ने ध्वस्त कर दिया। वहां इस बार नीतीश कुमार और सुशील मोदी की जोड़ी कोई
करिश्मा नहीं दिखा सकी। उपचुनाव ने एक बात तो साबित कर दिया कि लालू का वोट बैंक बरकरार है और 2019 के
लोकसभा चुनाव में मोदी और उनकी टीम 2014 नहीं दुहरा पाएगी।
बहुत सटीक लिखा है आपने। गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा की शिकस्त जनता का तानाशाही को जवाब है। मोदी और शाह का वहां रैलियां न करना साफ बताता है, भाजपा योगी के पर कतरना चाहती है।
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