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बालश्रम मजबूरी में मजदूरी या कुछ और



आलोक वर्मा

कोहरे से ढकी सड़क पर
बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह- सुबह !
बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयावह है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे एक सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे ?

हिंदी के एक युवा कवि की यह मात्र कपोल कल्पना नहीं है, बल्कि व्यवस्था के कटु यथार्थ से परिचय कराती है यह कविता। यह एक सवाल है और यह सवाल किसी एक देश पर लागू नहीं होता । पूरी दुनिया इसकी चपेट में है। विश्वभर में बच्चों के खेलने -कूदने और पढ़ने -लिखने की उम्र में मजदूरी करने को विवश होना पड़ रहा है।
बाल- श्रमिकों के नाम पर परिभाषित पांच से चौदह वर्ष की उम्र के बच्चे अपने अरमानों का गला घोंटकर, भविष्य दांव पर लगाकर पेट भरने के लिए मेहनत-मजदूरी को मजबूर हैं। दिलचस्प यह है कि जैसे-जैसे राष्ट्र तरक्की (विकास-शील) की डगर पर बढ़ रहे हैं, उसी गति से बाल-श्रमिकों की संख्या भी बढ़ रही है। आज दुनिया में बाल श्रमिकों की अधिकतम दर अफ्रीका में है। इसके बाद एशिया और लातिनी अमेरिका की बारी आती है। मगर श्रम-शक्ति में बच्चों की अधिकतम संख्या भारत में है। स्थिति यह है कि हमारे यहां बाल-श्रमिकों की संख्या कई छोटे छोटे देशों की जनसंख्या के बराबर है।
दरअसल, भारत में बच्चों की जितनी उपेक्षा हुई है, उतनी किसी और वर्ग की नहीं हुई। विकास की राष्ट्रीय नीति तैयार करते समय मानव संसाधनों खासतौर पर बच्चों के विकास के नाम पर मात्र खानापूर्ति की जाती है। समाज के एक खास तबके को छोड़ दें, तो यहां तकरीबन सभी बच्चे अमानवीय जीवन जीने को मजबूर हैं। जिस उम्र में उन्हें शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक सुविधाएं मिलनी चाहिए उस उम्र में वे खानों, कल- कारखानों, खेत - खलिहानों, ढाबों और धुआं उगलती चिमनियों के बीच कड़ी मेहनत करते रहते हैं।
श्रम मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के औसतन हर तीसरे परिवार में एक बाल -श्रमिक होता है। दूसरे शब्दों में पांच से चौदह साल की आयु का हर चौथा बच्चा बाल- मजदूर है। इसी तरह सेंटर फार कन्सर्न आफ चाइल्ड लेबर ने भारत में बाल-श्रमिकों की संख्या करीब दस करोड़ होने का अनुमान लगाया है।  यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में अशिक्षितों  और बाल-श्रमिकों का सबसे बड़ा देश भारत है। एक तथ्य यह भी काबिलेगौर है कि जहां पश्चिम बंगाल में बाल श्रमिकों पांच लाख है वहीं उत्तर प्रदेश में यह आँकड़ा  एक करोड़ दस लाख से अधिक का है। उत्तर प्रेदश में कुल श्रमशक्ति का 45 फीसदी बाल श्रमिक हैं। वर्तमान में विभिन्न खतरनाक उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की संख्या बीस लाख के करीब है। भारत में कुल 132 जिले ऐसे हैं, जिनमें खतरनाक उद्योगों में बाल मजदूर कार्यरत हैं। बिहार, आंध्र प्रदेश, गुजरा, कर्नाटक, जम्मू -कश्मीर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश व दिल्ली में 90 फीसदी बाल मजदूर कार्य करते हैं।
बाल -मजदूरों से संबंधित ये आंकड़े आधुनिकता, प्रगतिशीलता और विकास के  बड़े-बड़े दावों पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं, लेकिन बावजूद इसके इस कड़वी सचाई से हमारे नीति नियंता लगातार आंखें चुराते रहे हैं। यहां पर इस समस्या के समाधान के लिए तो बड़ी-बड़ी योजनाएं तो बनाई जाती हैं, लेकिन अभी तक कोई ठोस उपलब्धि हासिल नहीं हो पाई है।
ऐसा क्यों है कि सुबह-सुबह जब आधे बच्चे उज्ज्वल भविष्य की तलाश में स्कूल जा रहे होते हैं , उसी समय आधे बच्चे अपने और परिवार का भेट भरने के लिए विभिन्न स्थानों पर काम करने जा रहे होते हैं। चौंकाने वाले तथ्य तो यह हैं कि बालश्रम की समस्या पर विकसित देशों ने एक सीमा तक काबू पा लिया है लेकिन विकासशील राष्ट्र लगातार इससे जूझ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार यह भावना प्रबल हो रही है कि श्रम के लिए बच्चों का उपयोग करना सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से उचित नहीं है। इसी के तहत अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों में उन सभी वस्तुओं के बहिष्कार की लहर चल रही है, जिनके उत्पादन में बालश्रम का उपयोग किया गया होता है। अमेरिका में डेमोक्रेट सीनेटर टाम हरकिन ने ने कुछ समय पहले सीनेट में एक बिल प्रस्तुत किया था, जिसमें उन सभी वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी, जिनके उत्पादन में 15 वर्ष से कम आयु के लोगों का श्रम लगा हो। ' हरकिन बिल ' में यह सुनिश्चित करने की सलाह दी गई थी कि वे कैसे बालश्रम का उपयोग करने से बच सकते हैं। हाल ही में ओस्लो के अंतरराष्ट्रीय बालश्रम सम्मेलन में इंटरनेशनल कानफेडरेशन आफ फ्री ट्रेड यूनियन, यूनाइटेड अलायंस आफ डायमंड वर्कर्स, इंटरनेशनल कानफेडरेशन आफ कार्सियल क्लरिकल ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अपील की कि वे हीरा तथा जवाहरात उद्योग में जबरन बाल-मजदूकी कराने की प्रथा को खत्म कराने में सहयोग करें। सम्मेलन में बताया गया है कि भारत के जवाहरात उद्योग में करीब बाल-श्रमिक लगे हुए हैं। इस संबंध में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कहना था कि बाल -श्रमिकों के पुनर्वास का दायित्व भारत सरकार का है। सम्मेलन में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई थी वह यह थी कि शिक्षा के बजट में कम धन खर्च करने के कारण ही बालश्रम की समस्या बढ़ी है। गौरतलब है कि सरकारें शिक्षा की तुलना में रक्षा बजट पर बीस गुणा अधिक खर्च कर रही हैं।
लगातार सम्मेलनों और सेमिनारों में बाल-श्रमिकों का मुद्दा उठने के बावजूद भारतीय सरकारें इस तरफ से क्यों आंखें मूदे रहती हैं? बाल-श्रमिकों की तमाम समस्याओं और उनके जुड़ी परिस्थितियों को जानते-बूझते हुए भी उन पर काबू क्यों नहीं पाया जा सका। ये कई ऐसे सवाल हैं जो सरकारों की नेकनीयती पर संदह पैदा करती हैं। भारत में बाल-श्रमिकों पर अभी तक जो शोध किए गए हैं, उनसे यह निष्कर्ष निकला कि जिस प्रांत में साक्षरता दर जितनी अधिक है, वहां प बाल-श्रमिकों की संख्या उतनी ही कम है। इसका उदाहरण केरल है, जहां साक्षरता की दर अधिक है इसलिए कामकाजी बच्चों की संख्या सबसे कम 1.08 फीसदी है। वहीं, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक राज्यों में बच्चों के विद्यालय व्यय की दर अधिक है, तो उनकी काम में भागीदारी का प्रतिशत 7.90 तथा 7.64 फीसदी है। लेकिन यहां तो तस्वीर ही उलटी है। भारत में व्यवस्था कुछ इस तरह की बना दी गई है कि कम से कम लोग शिक्षित हों, वहीं मां-बाप के शिक्षित न होने, उनके आर्थिक संसाधनों के कमजोर होने तथा संकुचित और लापरवाह होने के कारण यह समस्या बढ़ी है। इन कारणों के चलते वे बच्चों की शिक्षा को अधिक महत्व नहीं देते। फलस्वरूप बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। माता-पिता भी परिस्थितियों के हाथों मजबूर हो शिक्षा के बदले उन्हें काम पर लगा देते हैं। वे सोचते हैं कि घर बैठाने या पुनः स्कूल भेजने से बेहतर है, आय का स्रोत बढ़ा दें। फिर यहीं से शुरू होता है बच्चों का दमन, शोषण और उत्पीड़न। बाल मजदूरी के कारण बच्चों का नैसर्गिक शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता । इससे उनकी मौजूदा क्षमता तो कम होती ही जाती है, उनकी भावी संतोनों पर भी विपरीत असर पड़ता है।
इसे इस तरह समझ सकते हैं- उद्योगों में काम करने वाले बाल-श्रमिक इतने थक जाते हैं कि वे कमाई के साथ पढ़ाई नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप शिक्षा और प्रशिक्षण के अभाव में उनके मानसिक विकास की गति धीमी हो जाती है। बौद्धिक कमी के बने रहने से आग् चलकर उनकी आय की क्षमता कम हो जाती है। अशिक्षित रहने के कारण ये जिंदगीभर केवल मजदूरी करते रहते हैं। इसके चलते इनका जीवन स्तर लगातार गिरता जाता है। इसके अलावा कुपोषण, अधिक जनसंख्या, जैसी समस्याएं जो केवल शिक्षा के द्वारा दूर हो सकती हैं, उन पर ये नियंत्रण नहीं कर पाते। खतरनाक उद्योगों में काम करने वाले बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अल्पवय होने के कारण मालिकान और वरिष्ठ सहयोगी उनको प्रताड़ित भी करते हैं। बाल-श्रमिकों को रखने से नियोक्ताओं का फायदा रहता है। वे मनमानी अवधि तक भय और प्रताड़ना के सहारे काम लेते हैं। उन्हें बाल-श्रमिकों से कोई भय भी नहीं होता ।
बाल श्रमिकों का शोषण रोकने के लिए सरकारी स्तर पर कानून तो बनाए गए, किंतु उनके क्रियान्वयन में शिथिलता के चलते उद्देश्य पूरे नहीं हुए। बाल मजदूरी के संबंध में सबसे पहले 1938 में ब्रिटिश सरकार ने बाल मजदूरी अधिनियम बनाया। 1946 में अभ्रक खान कानून, 1951 में चाय, काफी, रबर के बागानों में कार्यरत श्रमिकों के संरक्षण से जुड़ा अधिनियम, 1952 में खान कानून, 1959 में श्रम नियोजन अधिनियम, 1960 में बाल अधिनियम, 1976 में बंधुआ मुक्ति अधिनियम बनाए गए। इसके बाद भी कई कानून बनाए गए हैं, लेकिन इनके बारे में पूर्व न्यायाधीश पीएन भगवती का यह कथन विचारणीय है- 'बाल -श्रमिकों से संबंद्ध अधिकतर कानून कागजों तक सीमित है और उनका क्रियान्वयन लगभग शून्य है। इन उद्योगों में बाल-श्रमिकों की मौजूदगी ही इन कानूनों का माखौल उड़ाते हैं।'
ये कानून तब तक निरर्थक साबित होते रहेंगे, जब तक कि सभी नागरिक बच्चों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे। मुनाफाखोर और दिखावे के कानून बचपन नहीं लौटा सकते। इसके लिए अभिभावकों में चेतना जागृत करने की जरूरत तो है ही, साथ ही नियोजकों से भी सामान्य मानवीय कर्तव्यों की आशा की जानी चाहिए। बालकों को स्नेह, प्रेम, मनोरंजन, पोषण के अधिकार के साथ क्षमता के साथ आगे बढ़ने का अवसर दिए जाने की जरूरत है। अगर इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया, तो  राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण समाज पहले ही बेकार हो चुका होगा, फिर विकास, प्रगति, मानवाधिकार, लोकतंत्र की बात बेमानी ही रहेगी।
(अमर उजाला में 14 नवंबर 1997 को रूपायन परिशिष्ट के लीड आर्टिकल के रूप में प्रकाशित) 
             

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