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सामाजिक यथार्थ की प्रतिनिधि कहानियां



आलोक वर्मा
शेखर जोशी नई कहानी के कथाकारों में से एक हैं। शायद वे अकेले कहानीकार हैं, जिसने नई कहानी के दौर में लिखना शुरू किया और आज भी उसी सक्रियता के साथ रचनारत हैं, जबकि अमरकांत जैसे एकाध कहानीकारों को छोड़ दिया जाए तो उस दौर के अधिकांश कथाकार पिछले कई सालों से न लिखने के कारण पर मनन कर रहे हैं। शेखर जोशी की पहली कहानी दाज्यू 1953-54 में छपी थी और अपनी पहली कहानी से वे चर्चित हो गए थे। अमूमन उनकी प्रकाशित सभी कहानियां चर्चा के केंद्र में रहती हैं।
शेखर जोशी चूंकि नई कहानी आंदोलन की देन हैं, इसलिए उनकी कहानियों में उस दौर की प्रवृत्तियों का पाया जाना लाजिमी है। लेकिन किसी खास दौर की प्रवृत्ति में बंधकर वे नहीं रहे। उन्होंने समय की रफ्तार के साथ बदलते जीवन को देखा, परखा और जीवन की उसी संवेदना को, समाज को, समाज की उसी विडंबना को कहानियों के माध्यम से विश्लेषित किया। इस बारीक पकड़ ने ही उन्हें सदैव शीर्षस्थ कहानीकार बनाए रखा। अपने रचनाकर्म के बारे में शेखर जोशी ने लिखा है- छोटी उम्र में मातृविहीन हो जाने के बाद पर्वतीय अंचल के प्राकृतिक सौंदर्य से वनस्पतिविहीन राजस्थान में विस्थापित कर दिए जाने का दुखद अनुभव और परिचित परिवेश से कट जाने की कष्टप्रद अनुभूतियों ने मेरी संवेदना की धार को तेज कर दी। समझ विकसित होने पर अपने निजी अनुभवों को सामाजिक प्ररिप्रेक्ष्य में देखने की प्रक्रिया आरंभ होने पर दाज्यू कहानी लिखी, तो उसका नायक मेरा प्रतिरूप था। ... सामाजिक यथार्थ ने उसे अहसास करा दिया था कि आत्मीय संबंधों के मूल में भी वर्ग स्वार्थ होते हैं, जो मानवीय संबंधों में दरार डाल देते हैं।
जीवन कभी रुकता नहीं। जीवन के संदर्भ प्रतिदिन बदलते रहते हैं। सजग कहानीकार हमेशा मनुष्य के अंतर्द्वंद्वों को जीवन के नये संदर्भ में देखने की कोशिश करता है। समीक्षित संग्रह में शेखर जोशी की दस प्रतिनिधि कहानियां संकलित हैं। इसमें एक कहानी है विडुवा। विडुवा अर्थात वीडियो। कहानी में दो पीढ़ियों के अंतर्द्वंद्वों को चित्रित किया गया है। युवा पीढ़ी जहां नए तौर-तरीकों के मुताबिक चलना चाहती है, वहीं पुरानी पीढ़ी उसे स्वीकारने में झिझक महसूस करती है। कहानी में बड़े ठाकुर के पुत्र की शादी है। वे पुरानी परंपराओं के अनुसार चलना चाहते हैं, जबकि नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उनके छोटे भाई दिग्विजय और बहन ननकी शादी के समय की वीडियोग्राफी के लिए वीडियो ले जाना चाहते हैं। दिग्विजय चाहते हैं कि इस आधुनिक यंत्र के द्वारा विवाह यादगार बना दिया जाए, लेकिन ठाकुर कहते हैं- मुझे ये शहरी चोंचले पसंद नहीं। चार भले आदमी बाराती हो जाएं, अच्छा बाजा-गाजा हो जाए, मौज- मस्ती के लिए थोड़ा नाच-गाना हो जाए। जबकि ननकी कहती है, नहीं दादा, नांच -फांच नहीं चलता शहर में, लोग हंसी करेंगे। कहानी में परंपराओं और रीति रिवाजों के विखंडन  से बड़े ठाकुर बेचैन नजर आते हैं। घर में बारात की वीडियोग्राफी के प्रदर्शन के दौरान पूर्वजों के समय से चली आ रही आम लोगों से बनी हुई दूरी को मिटते देख उनके चेहते पर बेचैनी के भाव देखे जा सकते हैं।
शेखर जोशी अपनी कहानियों के माध्यम से जीवन में गहरे उतरकर समस्याओं और पात्रों के समग्र व्यक्तित्व को भोक्ता की तरह उभारते हैं। वे व्यक्तियों, घटनाओं और परिस्थितियों को व्यापक संदर्भ में देख और पहचानकर जीवन के द्वंद्वों और अंतर्द्वंद्वों का चित्रण करते हैं। कहानी पढ़ते समय पाठक को लगता है कि इसमें उसके या आसपास के किसी चरित्र का वर्णन किया गया है। डरे हुए लोग कहानी में सभी जरूरतें पूरी न कर पाने वाला पति आत्मद्वंद्व में उलझा नजर आता है। वह बेटे की जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाता। कहानी की शुरुआत ही होती है, महीने के अंतिम सप्ताह में उन दोनों के पीच लुकाछिपि चल रही थी। कमला हर तरह से ऐसी चाल चलती है कि उसका प्रतिद्वंद्वी उसकी चाल को विफल न कर सके। कमला का प्रतिद्वंद्वी उसका पुत्र है। बेटे को लगातार यह आश्वासन दिया गया है कि माह के अंत में वेतन मिलते ही उसकी जरूरतें पूरी कर दी जाएंगी। जबकि पति-पत्नी दोनों जानते हैं कि ऐसा संभव नहीं होगा। यह केवल कमला की नहीं, प्रत्येक मध्मवर्गीय परिवार की स्थिति है।
कोसी का घटवार उद्दाम जिजीविषा और गहरी मानवीयता की कहानी है। प्रेम के औदात्य रूप का व्रणन है इस कहानी में। कहानी में गुसाईं के जीवन में व्याकुल अकुलाहट और गहरा आत्मीय संस्पर्श है। कहानी में गुसाईं की आंतरिक संवेदना ही प्रमुख है। पूरी कहानी उसके अकेलेपन की तीव्रतम अनुभूति को प्रकट करती चलती है। प्रेमिका से शादी न हो पाने के चलते वह आजीवन अविवाहित रहता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, जिंदगीभर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं। पालतू कुत्ते, बिल्ली का स्वर भी नहीं।लेकिन असफलता और अंधकार के बीच भी जीवन का संघर्ष निरंतर जारी है। मानवीय करुणा स्रोत सूखा नहीं है। लछमा से अप्रत्याशित भेंट के दौरान एक बार भी शिकायत का भाव नहीं, बल्कि उसकी सहायता करने की इच्छा ही है। कहानी आशा एवं स्वस्थ जीवन मूल्यों का संकेत देती है।
कथा-व्यथा में दृष्टि और संदर्भ की नवीनता है। एक अच्छा कहानीकार उसे माना जाता है, जो सूक्ष्म संकेतों के द्वारा बड़ी से बड़ी बात कह दे। कथा-व्यथा में शेखर जोशी ने यही किया है। जीवंती काफी दिनों से मनौती के बावजूद सत्यनारायण का कथा नहीं सुन पा रही है।  उसके घर में इस बात को लेकर हमेशा अपराध बोध समाया हुआ है, इसलिए बड़े दाजी के घर कथा सुनने के लिए वह दूसरी बेला खेत में काम करने नहीं जाती। आरती के दौरान वह सवा रुपये चढ़ाकर कथा न करा पाने का बोझ उतारना चाहती है, लेकिन सामाजिक भेदभाव का जो जहर लोगों के मन में भर दिया गया है, उसके चलते वह सपने में सोचती है कि पंडित जी ने उसके चढ़ाये रुपये को खोटा साबित कर दिया है। इस कहानी में कथाकार ने जीवंती के माध्यम से जीवन के तमाम शेड्स को चित्रित किया है। इस कहानी में कथाकार सांकेतिक रूप से उस माहौल की तरफ इशारा करता है, जहां ईश्वर को भी पैसे वालों के लिए सुरक्षित मान लिया गया है। इसी तरह आखिरी टुकड़ा  में  कहानीकार ने कृषि से बढ़ रहे बिलगाव का चित्रण किया है। नौकरियों को लेकर जिस तरह से खेती और जमीन से युवा पीढ़ी दूर हुई है, इस चिंता को मंगरू के माध्यम से प्रकट किया गया है। एक तरफ पुरानी पीढ़ी के मंगरू के बाप ने जमीन के उस टुकड़े के लिए जान दे दी, मंगरू ने सदैव उसे मां से अधिक मान दिया। वहीं सुरजा के लिए उसका महत्व उस रूप में नहीं रहता, वहां वह खंभे गाड़कर बाड़ लगा देता है, ताकि लोहारखाने की सीमा वहां तक बढ़ सके। यहां पर किसान से मजदूर बन जाने का सांकेतिक चित्रण है।
नौरंगी बीमार है संग्रह की अंतिम कहानी है। इसमें एक फैक्ट्री का वर्णन है। श्रमिकों का आपसी संबंध किस प्रकार का होता है, इन सबका बहुत स्वाभाविक और रोचक तरीके से इस कहानी में वर्णन किया गया है। लेकिन कहानी में भ्रष्ट व्यवस्था में एक ईमानदार मजदूर के बेईमान बन जाने का चित्रण है। यह व्यवस्था कैसे लोगों को पथभ्रष्ट और चरित्रहीन बना रही है, इसे नौरंगी के माध्यम से समझा जा सकता है। नौरंगी अपनी ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है। ज्यादा मिले रुपये लौटाने के लिए हेड आफिस के चीफ साहब फैक्ट्री आकर उसे शाबाशी दे चुके हैं। ऐसे ही एक मामले में दूसरी बार नौरंगी कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देता, लेकिन बेचैन वह अवश्य है। नौरंगी क्या गुनता है, उसे कहानीकार ने लिखा तो नहीं, लेकिन कहानी के अंत में उसका आशय स्पष्ट कर दिया। लेकिन सुबर नारंगी काम पर हाजिर था। चुस्त- दुरुस्त। जैसे इस बीच कुछ हुआ ही न हो। वह सीना तानकर शॊप में घुसा और अपने ठिए पर पहुंच गया। कहानीकार ने बगैर कहे यह स्पष्ट कर दिया कि रुपये को लेकर नौरंगी के मन में जो ग्लानि और शर्मिंदगी का भाव था, वह सबके चोर होने की बात सुनकर खत्म हो जाता है। उसके मन में यह भाव आ जाता है कि जब सभी बेईमान हैं, तो वह अधिक रुपये लेकर कैसे गलत है। इस कहानी के माध्यम से समाज में फैले खोखलेपन को कहानीकार उघाड़कर रख देता है तथा व्यवस्था के पतित रूप को स्पष्ट कर देता है।     

पुस्तक – दस प्रतिनिधि कहानियां
लेखक- शेखर जोशी
प्रकाशक- किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली।        
मूल्य – 70 रुपये
       

(यह समीक्षा अमर उजाला में 8 मार्च 1998 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)
       

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