- परशुराम

मैं कुछ दूसरी बात करना चाहता हूं। मैं हिन्दी के एक महत्वपूर्ण, चर्चित और लोकप्रिय कवि धूमिल की कविता के माध्यम से अपनी बात रखना चाहूंगा। धूमिल साठ के दशक के कवि हैं। रचना रचनाकार की संवेदनशीलता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का फल है। मैं उनकी रचना के माध्यम से अपनी बात इसलिए रखना चाहता हूं कि साठ-सत्तर के दशक में भी आज की ही तरह लोकतंत्र, संसद, संविधान, अर्थनीति आदि पर बुद्धिजीवियों और साहित्यिकों द्वारा बहुत तीखी टिप्पणी की जा रही थी। अन्तर केवल इतना है कि आज की तरह विपक्ष इतना कमजोर नहीं था। धूमिल ने तो यहां तक कहा था कि मुझे अपनी कविताओं के लिए दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है। उन्होंने ही लिखा था कि " न कोई प्रजा है/ न कोई तंत्र है/... यह आदमी के खिलाफ आदमी का खुला सा षड्यंत्र है।" यह सवाल आज भी प्रमुख है कि इस लोकतंत्र का "जन" कौन है जो इस लोकतंत्र में फिट नहीं बैठ रहा है। बहरहाल इस मुद्दे को यहीं छोड़कर मैं सीथे धूमिल की एक कविता " पटकथा" की कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूंः
" दरअस्ल , अपने यहां जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
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एक " पूंजीवादी" दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता
बनी रहे।
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और विरोध में उठे हुए हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे..... "
एक अत्यंत लम्बी कविता की पंक्तियां हैं ये। इन पंक्तियों में मदारी को अलग से व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है। स्वाधीनता के बाद " मदारी" लोक-लुभावने नारों-वादों से जनता को अपने पक्ष में आकर्षित करते रहे हैं। किन्तु अभी इलेक्ट्रानिक माध्यम के आ जाने से " मदारियों" को अपनी बात को प्रचारित - प्रसारित करने तथा अपनी साफ सुथरी छवि निर्मित करने में बहुत मदद मिली है। मैंने पहले ही मीडिया की भूमिका की ओर संकेत कर चुका हूं और हम सभी 2014 के चुनाव और बाद में भी इसका अनुभव कर ही रहे हैं। नेहरू -शासन- काल में तैयार की गयी " निष्क्रिय क्रांति" की नीति का संकेत कवि ने "आहिस्ता-आहिस्ता परवर्तन " में किया है। यह धूमिल की यथार्थवादी दृष्टि और यथार्थ के अंतरतम में चल रहे परिवर्तनशील आयामों की संवेदनशीलता निरीक्षण का संकेत है। यह कविता 1970 के पूर्व की है किन्तु आज स्थिति बहुत बदल चुकी है। पूंजीवाद का अन्तहीन संकट बढ़ता गया है औक वह कई पद्धतियों, अर्थनीतियों और साजिशों से अपने को बचाने में लगा है। कहना न होगा कि इधर तेजी से परिवर्तन हुए हैं। भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण से होती हुई वित्तीय व्यवस्था और उसके संकट के "दुष्परिणाम" दुनिया देख चुकी है।
जनता तबाह हुई है। वही होती भी है। यह केवल भारत की ही बात नहीं है। बल्कि पूरे विश्व में तबाही मची हुई है। अभी हाल ही में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) द्वारा विश्व अर्थव्यवस्था की दर घटने और मंदी के खतरे की घोषणा की गई है। वस्तुतः 2008 का संकट अभी टला नहीं है बल्कि निरन्तर बढ़ता हीजा रहा है। किन्तु भारतीय शासक वर्ग और सत्ता पोषित मीडिया भारतीय अर्थव्यवस्था के मजबूती का गुणगान करने में लगे हैं। यह वास्तव में एक नई जुमलेबाजी के सिवाय कुछ नहीं है।
1947 में भारत को राजनीतिक आजादी हासिल हुई। नया संविधान बना । यद्यपि वह ब्रिटिशकालीन 1935के इंडिया एक्ट के प्रावधानों के आधार पर था। संविधान के अनुसार भारत को संपूर्ण प्रभुतासम्पन्न समाजवदी धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया जिसके मूल में सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व की भावना रही है। बहुलतावादी समाज , संस्कृति और परम्परा भारतीय समाज में सोच और व्यवहार के स्तर पर सर्वदा जीवन्त रहा है। यह परम्परा भारतीय समाज की अन्तरात्मा है। एक लम्बे अतीत वाला भारतीय समाज सम्पूर्णतः सहिष्णु और अहिंसक रहा होगा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। मैं यहां उसके विस्तार में नहीं जाना चाहता। हमारा संविधान लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है किन्तु व्यावहारिक स्तर पर यह अक्षम भी साबित होता रहा है। तमाम राजनीतिक पूंजीवादी पार्टियां धर्म और जाति के नाम पर फूट डालकर चुनावी जंग जीतती रही हैं। लोक लुभावने नारे - वादे किये जाते रहे हैं। जनता निरंतर तबाह और कंगाल होती रही है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है कि भूमंडलीकरण, निजीकरण, उदारीकरण के चलते लोगों का जीना दूभर हो गया था और अभी तो संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। मदारी लोगों को नये-नये जुमलोंसे लुभाने में लगे हैं ताकि उनकी रोटी, रोजगार और लोकतांत्रिक अधिकार के सवाल नेपथ्य में चले जाएं। विदेशी पूंजी के निवेश को न्योता और उन्हें हर तरह की छूट की घोषणा की जा रही है। विपक्ष की कोई भूमिका लगभग नहीं के बराबर रह गयी है। वैसे भी इनमें से अधिकांश पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध नहीं रहे हैं। हां, उग्रता कम अवश्य थी। उसके कारण कई रहे हैं जिसका विश्लेषण यहां अपेक्षित भी नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सहूलियतें और सरकारी सहायता (सब्सिडी) में भारी कटौती करते बदले में पूंजीपतियों के टैक्स माफ किये गये और उन्हें हर तरह की सहूलियतें दी गयीं। बाजार अर्थतंत्र (Market Economy)हावी है।
केंद्रीय बजटों के विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है। 2015-16 के वित्तीय वर्ष के बजट में प्रत्यक्ष करों की कटौती के कारण सरकारी खजाने को 8415 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था जबकि अप्रत्यक्ष करों की बढ़ोत्तरी के कारण सरकार के खजाने को 23383 करोड़ का लाभ हुआ था। 2016-17 के वित्तीय वर्ष के बजट में कटौती के कारण सरकारी राजस्व को 1060 करोड़ का घाटा हुआ और अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी के कारण 20670 करोड़ का लाभ हुआ। यानी दोनों वर्षों में 44053 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई जबकि प्रत्यक्ष करों में 9375 करोड़ रुपये की कमी हुई। अप्रत्यक्ष कर (Indirect Tax) मुख्य रूप से आम जनता देती है जबकि प्रत्यक्ष कर (Direct Tax)कारपोरेट घराने, पूंजीपति वर्ग और अमीर देते हैं। स्पष्ट है कि पूंजीपतियों, कारपोरेट घरानों और अमीरों को भारी छूट दी गयी है जबकि ठीक इसके विपरीत आम मेहनतकश लोगों की मेहनत की लूट बढ़ाने में अप्रत्यक्ष करों में भारी बढ़ोत्तरी करके पूंजीपति वर्ग की भारी मदद की गई है। और ऐसा हमेशा से होता रहा है। यह केवल आज की बात नहीं है। देश की सम्पत्ति से अमीरों की तिजोरियां भरी जा रही हैं, गरीबों को बेरोजगारी के साथ-साथ महंगाई की मार खानी पड़ रही है, उनकी जेबें काटी जा रही हैं, उनकी जिंदगी तबाह हो रही है और संसद में इसकी कोई चर्चा नहीं है। किसान पहले ही अधिक संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और वैचारिक विरोधियों पर आक्रमण तेज किये गये हैं। " सबका साथ सबका विकास " का यही सच है।
हमारे समय का आख्यान अविरोध का आख्यान है। आप न तो विरोध कर सकते हैं और न ही सवाल पूछ सकते हैं। जो विरोध करता है, सवाल पूछता है और सरकार को कठघरे में खड़ा करता है, उसे देशद्रोही और राष्ट्रविरोधी करार दिया जाता है। उन्हें दंडित और अपमानित किया जा रहा है। यह सब नये - नये जुमलों के साथ किया जा रहा है। गैरकानूनी ढंग से लागू की गयी नोटबंदी से साधारण जनता परेशान है और उसे " काला धन लाने" वाले जुमले के साथ किया जा रहा है जबकि कालेधन वाले बड़े बड़े पूंजीपति आराम की नींद सो रहे हैं। एक दिन इसका भी सच सामने आएगा ही। मुझे मुसोलिनी के फासीवाद के पांच सूत्र याद आ रहे हैं- पहला, राजसत्ता के हितों को व्यक्तियों के हितों के ऊपर रखना, दूसरा, राष्ट्र के ऊपर राजसत्ता की वरीयता;तीसरा, लोकतंत्र का परित्याग, चौथा, राजसत्ता का धर्मनिरपेक्ष न होकर किसी एक खास धर्म को सम्मान और संरक्षण देना तथा पांचवां, राजसत्ता को पूरे राष्ट्र की अन्तस्चेतना मानना। जाहिर है जो सरकार के खिलाफ है, वह राष्ट्र के खिलाफ है यानी राष्ट्रद्रोही है और उसके खिलाफ अभियोग लगाना जरूरी है। अघोषित रूप से भारत हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ रहा है। तमाम स्वायत्त (Autonomous) संस्थानों-इतिहास, शिक्षा, फिल्म, म्यूजियम आदि से सम्बन्धित का भगवाकरण किया जा रहा है। साथ ही न्यायपालिका, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और रिजर्व बैंक को नियंत्रित करने के प्रयास जारी हैं। यह अपने आप में स्पष्ट है कि देश आखिर किस दिशा में जा रहा है। पूंजीवादी लोकतंत्र और मानवाधिकार के नाम पर केवल अपने यहां नहीं, पूरे विश्व में दमन और आतंक पनपते और बढ़ते जा रहे हैं। एक तरफ वैज्ञानिक विकास और दूसरी तरफ मिथकीय वैज्ञानिक प्रभाव का गुणगान। वह भी विज्ञान कांग्रेस के समारोह में । यानी वैज्ञानिक दृष्टि को धार्मिक अन्धविश्वासों, मिथकों और प्रतीकों से स्थानान्तरित करने की मुहिम जारी है। हिन्दुत्ववादी शक्तियां अपनी सोच और संस्कृति को सब पर थोपना चाहती हैं। बहुलतावादी संस्कृति, जो भारतीय समाज की आत्मा है, वह संकट में है। धर्म आधारित राष्ट्रवाद की वापसी में समूचा भारतीय समाज भयानक समय से गुजर रहा है। मशहूर शायर और जाने माने वैज्ञानिक गौहर रजा की एक गजल ' देशद्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी' की दो चार पंक्तियां यहां उद्धृत हैं जिनके लिए जी न्यूज के पत्रकारों ने उन्हें देशद्रोही ठहरा दिया था किन्तु दुनियाभर के शायरों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के विरोध करने पर जी न्यूज ने बाद में माफी मांग ली। पूरी गजल उद्धृत करना यहां संभव नहीं है। कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:
' धर्म में लिपटी वतनपरस्ती क्या - क्या स्वांग रचायेगी
मसली कलियां, झुलसा गुलशन, जर्द रिवजां दिखलायेगी
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फनकारों से पूछ रहे हो क्यों लौटाये हैं सम्मान
पूछो, कितने चुप बैठे हैं, शर्म उन्हें कब आयेगी
यह मत खाओ, वह मत पहनो, इश्क तो बिल्कुल करना मत
देशद्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी। '
इसमें सामयिक घटनाओं का ही जिक्र है। हमारे इतिहास, परम्परा और बहुलतावादी संस्कृति से खिलवाड़ किया जा रहा है। हमारी स्वस्थ विकासमान प्रगतिशील स्मृतियों को, जो हमारी धरोहर हैं, नष्ट करने का निरन्तर प्रयास जारी है और कहीं-कहीं इसमें सत्ता का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग दृष्टिगत होता है। इन स्मृतियों को सुरक्षित रखने का संघर्ष भी आवश्यक है।
मैं पुनः धूमिल की कविताओं की ओर लौटता हूं। धूमिल की ' रोटी और संसद' की कुछ पंक्तियां याद आती हैं। यद्यपि उन्होंने सत्तर के आसपास यह कविता लिखी थी। तब से दुनिया बहुत बदल चुकी है। पूंजीवाद का चरित्र भी बदल चुका है जिसकी ओर पहले संकेत किया जा चुका है। फिर भी उनकी ये पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं। इसलिए भी कि हमारी मेहनत का फल कहां जा रहा है और हम भूखे क्यों मर रहे हैं। पंक्तियां कुछ इस प्रकार हैंः
' एक आदमी रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है / एक तीसरा आदमी भी है / जो न रोटी बेलता है / न रोटी खाता है/ वह रोटी से खेलता है / मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है/ मेरे देश की संसद मौन है। '
यद्यपि इन पंक्तियों में तत्कालीन पूंजी के चरित्र, विशेषकर क्रोनी कैपिटलिज्म (Crony Capitalism) की ओर संकेत है किन्तु आज के युग में आभासी पूंजी की बाढ़ आई है। बाजार तंत्र व्यवस्था पर हावी है। विश्व पूंजीवाद चिरन्तन अन्तहीन संकट में फंसा हुआ है। वह उबरने का भिन्न-भिन्न रास्ता ढूंढ रहा है। समाजवाद, पूंजीवाद का निषेध है और वही मानवता की मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। ऐसे समय में राष्ट्रवाद का राग अलापने से अल्प समय के लिए भ्रम का कुहासा अवश्य फैलाया जा सकता है। औपनिवेशिक युग की तरह आज राष्ट्रवाद की जमीन से साम्राज्यवाद के विरोध में मुक्ति संघर्ष संभव नहीं। क्योंकि राष्ट्रवाद की जमीन पूंजीवाद की जमीन होती है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जन्म मंडी में हुआ था। यह ऐतिहासिक तौर पर पूंजीवादी घटना है। सांस्कृतिक धरातल पर भी ' सांस्कृतिक साम्राज्यवाद' (Cultural Imperialism) और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (Cultural Nationalism) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कारण ' अर्थ' और संदर्भ में भिन्नता के बावजूद वे एक ही उद्देश्य - मनुष्यों को धर्म, राष्ट्र भाषा, जाति, क्षेत्र, नस्ल आदि की संकीर्ण भावनाओं के आधार पर बांटकर अलग-अलग कर देने- की पूर्ति करते हैं तथा लोकतांत्रिक मूल्यों और जनवादी चेतना को हाशिए पर डाल देते हैं। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ' वस्तुतः हिन्दू राष्ट्रवाद ही है। मैंने पहले ही संकेत किया है कि मीडिया सरकारी मोर्चा और प्रवक्ता बन गया है। आज मीडिया भी सत्ताधारी वर्ग की नाकामियों को छिपाने के लिए ' डेफीनेशनल कंट्रोल' का खेल खुलकर खेल रहाहै। हर्बर्ट आई. शिलर के अनुसार ' डेफीनेशनल कंट्रोल' खबरों को छुपाता है, साथ ही समझ का फ्रेमवर्क भी बनाता है। मसलन फ्रेमवर्क में महत्वपूर्ण बात शामिल न हो और गैर महत्वपूर्ण या नाटकीय बात शामिल हो। मूल मुद्दा संसद से गायब है। मीडिया में गायब है। धूमिल का ' तीसरा आदमी' दुनिया के सामने नये रूप में है। वह शायद निरन्तर अपना रूप बदल रहा है। उसकी पहचान आवश्यक है। बेहतर दुनिया का विकल्प भी उसके विनाश में ही है।
इतिहास रुकता नहीं । वह गतिमान रहता है। मानवता के विकास की व्याख्या के क्रम में मार्क्सवादी इतिहास - दर्शन यही निष्कर्ष देता है कि ' ऐसा हो नहीं सकता कि मनुष्य की यह विकास -यात्रा निरुद्देश्यता या निरर्थकता में ही समाप्त हो जाये। वह एक निश्चित, सार्थक गन्तव्य तक अवश्य पहुंचेगी। ' हमें उम्मीद नहीं छोड़नी है। पोलैंड की एक कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का की ये पंक्तियां प्रासंगिक हैंः
' हमें विरासत में उम्मीद भी मिली है
और स्मृति का वरदान भी
तुम देखोगे कि किस तरह हम
विनाश के बीच सृजन के बीज बोते हैं। '
हमें किसी भी कीमत पर अपनी स्मृतियों और उम्मीद को जिलाये रखना है ताकि मानव समाज का एक बेहतर विकल्प निर्मित हो सके।
संपर्कः
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परशुराम
140/1, रामकृष्णपुर लेन
शिवपुर
हावड़ा (पश्चिम बंगाल)
पिनः 711102
मो. 9433708453
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