संस्मरण के दायरे में क्या
आना चाहिए? आखिर संस्मरण लिखा जाए तो उनमें
किन बातों का उल्लेख किया जाना चाहिए?
क्या संस्मरण के नाम पर सिर्फ कीचड़ उछालने का काम किया जाना चाहिए ? क्या सिर्फ पुराना हिसाब चुकता करने के लिए संस्मरण
लिखा जाना चाहिए?
क्या उसमें तत्कालीन विसंगतियों, चुनौतियों, संघर्षों तथा उनका मुकाबला करने वालों
के योगदान को नकार कर सिर्फ अपनी यशोगाथा दूसरे की निंदा ही संस्मरण लिखने का मूल
उद्देश्य होना चाहिए?
डा. शुकदेव सिंह के संस्मरण की पुस्तक ‘सब
जग जलता देखिया’ को
पढ़ते समय ये कुछ प्रश्न सहज मन में उठते हैं। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलू को अगर नजरअंदाज भी कर
दें तो कम से कम साहित्यिक दुनिया और वातावरण का खाका तो खींचा ही जाना चाहिए ताकि
अगली पीढ़ी को भूतकाल से वर्तमान का आंकलन करन में सहूलियत हो।
वैसे सच तो यह है कि अगर
हम राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वातावरण का विवेचन नहीं करेंगे तो साहित्य के साथ
न्याय नहीं कर पाएंगे। फिर उसका हश्र वही होगा जो शुकदेव सिंह की पुस्तक ’ सब जग जलता देखिया’ का हुआ है। वह पुस्तक एक पक्षीय बयानबाजी भर रह जाएगी
जिसमें आप जिसे चाहें पटक दें, पीट दें या गाली दे दें। उस फुटबाल मैच की तरह
जिसमें केवल एक खिलाड़ी खेल रहा हो और गोल पर गोल दागे जा रहा हो। और फिर मोर्चा
फतह कर लेने के विजयी दर्प के साथ पीठ थपथपा लेने की कवायद करे।
संस्मरणों की पुस्तकों में
शायद यह सबसे निंदापरक प्रस्तुतिकरण होगा। अहमन्यता की ऐसी दूसरी बानगी शायद ही
हो। अपनी भाषायी कला का प्रदर्शन करते हुए डा. शुकदेव सिंह ने ’सब जग जलता देखिया’ में एकाध लोगों को ही बख्शा है। पुस्तक पढ़कर लगता है कि
हर आदमी गंदा है, भ्रष्ट है, दुष्ट है। सभी ने कभी न कभी कमजोर और लाचार शुकदेव
सिंह को सताया है, यातना दी है। शुकदेव सिंह नरम और गरम का छौंक लगाते हुए हर आदमी
को पछाड़ते हैं, उसकी लानत-मलानत करते हैं। लेकिन अपने लेखे वे किसी के न दुश्मन
हैं न शत्रु। वे सभी की इज्जत करते चलते हैं।
उपेंद्र नाथ अश्व वाले लेख
में वे कहते हैं- ’
दुश्मनी शास्त्र का उतना बड़ा पंडित शायद ही कोई हुआ हो, उन्होंने जिसको खिलाया-
पिलाया, उसे दुश्मन बनाया। दुश्मनी उनके काव्यमय व्यक्तित्व का बड़ा ही रंगीन
ध्रुवक था। टेक भी।’
अश्क के बहाने वे कई लोगों
का ’गुणगान ’ करते हैं। बानगी देखिये ’... सभी पंडित उनसे डरते थे। उनके सामने पड़ते ही वे पोंगा
पंडित हो जाते थे। ऐसे महापुरुषों में नरेश मेहता, शिव प्रसाद सिंह और भी कई लोग
थे। ’
वे अश्क के बहाने दूसरों
की पिटाई करने का मौका नहीं चूकना चाहते। लिखते हैं ’...लिखना उनके लिए मजहब की तरह निहायत ही जरूरी काम था।
उन्होंने बिना किसी मुरव्वत के रचना और आलोचक के बीच का पहरा खत्म किया। ...
रचनाकारों के बीच वे पुख्ता आलोचक थे। उनसे पहले किसी रचनाकार ने आलोचना पर उतनी
मेहनत नहीं की। अश्क के बारे में उन्हीं की नस्ल में शामिल होते हुए मार्कन्डेय,
कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और निर्मल वर्मा विचार चिंतन और समीक्षा की दुनिया में
हाजिर हुए। इनमें मार्कन्डेय सबसे प्रौढ़ हैं, राजेंद्र यादव उपद्रवी और निर्मल
वर्मा दार्शनिक।’
लेकिन अश्क जी के उनके बारे में कैसे विचार थे- ’... मैं उनके लिए बच्चा था, दोस्त था, दुश्मन था। अनेक
गंभीर समस्याओं में बातचीत का, सही संवाद का एक पुख्ता तुरुप था।’ लेकिन जब उन्हें लगा कि उन्होंने अश्क जी की काफी
प्रशंसा कर दी तो सुर बदल लिए-’...
वे यशकारी, आत्म प्रशंसा के नाटकीय आलोक में जीते हुए एक गुमनाम रौनक में दफन हुए।’
काशीनाथ सिंह के बारे में
शुकदेव सिंह के विचार सुनिये- ’...
काशी के भीतर एक निहंग है, एक जंगम है, एक संकट मोचक बानर है, एक बैरागी है, एक
लफंगा है, एक गिरगिट है। काशी एक अल्हड़ लेकिन चालाक, चाटुकलाविद है। काशी के बनने
का लंबा इतिहास है। अपने संघर्ष काल में वे क्रांतिकारी और आधुनिक थे। उन्हें अपनी
सफलताओं ने सुरक्षित, कमजोर और सघन आत्म विश्वासी बना लिया है। वे कतई प्रगतिशील
नहीं हैं, रैकेटियर हैं। ’ लेकिन काशीनाथ सिंह की बुराई करते करते आत्म प्रशंसा
पर उतर आते हैं- ’
लेकिन इन ओछी बातों को लेकर न कहने का वक्त मेरे
पास है न सुनने समझने का वक्त उनके पास। उनके घर में मंगल हो, खुशी हो, मौत हो, गम हो या जब कभी
जरूरत हो, मैं एक पांव पर खड़ा रहता हूं। ’
काशीनाथ वाले अध्याय में
ही वे एक प्रसंग मे डा. विजय मोहन सिंह के बारे में लिखते हैं- ’... विजय मोहन सिंह जैसे दर्प से कुंठित जमींदार के
घर में, जिनमें गुंटर ग्रास की तरह गुत्थ ही नहीं आंख में कीचड़, कान में खोंट,
नाक में पोटा, मुंह में थूक और नाखून में मैल देखने की अद्भभुत संत शक्ति है।’ बात
दुर्ग विजय की कर रहे हैं और निशाने पर विजय मोहन सिंह हैं- वे विजय मोहन जैसे
तीसरे दर्जे के आदमी और चौथे दर्जे के अहम्मन्य अनपढञ, पूरे कालेज में सबसे खराब
कैरियर रखने वाले एक आगंतुक का भी ख्याल रखते थे। इसलिए वे इनके सहपाठी थे। हुचुक
हुचुक कर चलते थे। लट्ठ का पैजामा पहनकर खुद को नवाब हुसैन जुरेती समझते थे। ’
नामवर सिंह को वे गुरु
मानते हैं और उनकी छीछालेदर करने में कोई कमी नहीं छोड़ते। नामवर पर लिखे संस्मरण ’ बंदौ गुरुपद पदम परागा’ की शुरुआत देखिए- ’ उनके गुरु केशव प्रसाद थे। चेला मैं। उन्होंने हजारी
प्रसाद द्विवेदी को गुरु मानकर प्रचारित किया। चेला परमानंद श्रीवास्तव को मान
लिया। ... साहित्यिक राजनीति में उनके गुरु शिवदान सिंह चौहान थे। चंद्रबली सिंह
ने उन्हें दिल्ली पहुंचाया। लेकिन उन्होंने शिवदान सिंह को साफ किया। राम बिलास
शर्मा के साथ नाइंसाफ किया। दोनों उनके अगुवा थे। रिश्तों की पकड़ में उनका कोई
मुकाबला नहीं। जिसको भी छुआ वो जल गया। लेकिन हर जली रस्सी ऐंठन के साथ यही
चुभलाती रही कि हम नामवर सिंह के हैं। नामवर सिंह हैं। ’
इनकी कई बातें सही भी हो
सकती हैं। लेकिन चेले का तो देखिए। जिसके पास ऐसा चेला हो उसे दुश्मन की क्या
जरूरत। चेले ने अपने ’शोध’ में गुरुदक्षिणा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
नामवर पर अपनी कुंठा भद्दे शब्दों में जाहिर करते हैं- ’ लेकिन आदमी जह बूढ़ा हो जाता है, कमजोर हो जाता है तो कई
मलखान, मलखान के रूप में चिपरी पाथने लगते हैं। बीमारी के बाद गुरुवर काफी विनम्र,
सहृदय और दयानिधि हो चुके हैं। ईर्ष्या और दंभ मलमूत्र की तरह उनसे विलीन होने के
बाद भी धमनियों में शुद्ध रक्त की तरह प्रवाहित होते रहते हैं। ’
अपनी पुस्तक में शुकदेव
सिंह ने नामवर सिंह के बारे में इसी तरह बहुत कुछ लिखा है। शब्द दर शब्द ’स्तुतिगान ’
किया है। नामवर सिंह जो हैं वे हैं ही लेकिन शुकदेव सिंह ने उनका मानमर्दन करते
हुए अपना भी मानमर्दन कर लिया है। अगर शुकदेव सिंह के बारे में उन्हीं द्वारा अशोक
वाजपेयी के लिए लिखी गयी पंक्ति उधार लेकर कही जाए तो वह ज्यादा सटीक बैठेगी- ’ कहना न होगा कि आत्मरति एक सीमा से आगे न सिर्फ
अनैतिक होती है, वह ऐसा असावधान गद्य भी लिखवा लेती है। ’
वैसे पुस्तक में संबंधों
की दास्तां है। जीवन के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख है। इसमें लेखक के अपने जीवन का
संघर्ष है तो दूसरे के संघर्ष को कम करके आंकने की चालाकी भी है। लेकिन इस पुस्तक
की जो सबसे बड़ी कमजोरी है वह है उनके रचनाकर्म के दौरान आने वाली परेशानियों का
जिक्र न होना। अपने रचनाकर्म के बारे में शुकदेव सिंह ने जहां भी लिखा है वह केवल
बहुत अच्छा रहा, सब पर भारी रहा वाला भाव है। इसमें न तो उनके अपने संघर्ष का
जिक्र है न दूसरे की किसी सहायता का। शायद इसमें उन्हें अपने कद के घट जाने की
चिंता रही होगी।
वैसे पुस्तक रोचक है। एक
बार पढ़ना शुरू करेंगे तो आगे पढ़ने की इच्छा बढ़ती जाएगी। शायद वह दूसरों की
जिंदगी में ताकाझांकी और भाषा का कमाल है। लेकिन शुकदेव सिंह ने इस कमजोरी का भांपा है इसीलिए गाली
गलौज की सीमा तक जाकर विरोधियों की खबर ली है।
पुस्तक का नाम- सब जग जलता
देखिया
लेखक- शुकदेव सिंह
मूल्य – 80 रुपये
प्रकाशक- सदानीरा प्रकाशन,
5बी, खुसरो बाग, इलाहाबाद।
(यह समीक्षा दैनिक ट्रिब्यून
में 10 जुलाई 2005 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)
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