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साहित्य क्यों और किसके लिए?  आलोक वर्मा

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साहित्य क्यों और किसके लिए ये प्रश्न कला और सभ्यता के विकास के साथ-साथ अनेक बार व्याख्यायित हुए हैं। तुलसीदास के समय सन्दर्भ और आज के समय सन्दर्भ में बहुत अन्तर आ गया है क्योंकि आज के वातावरण में आज का स्थितियों में, परिवेश और चरित्रगत अभिव्यक्तियों में करीब-करीब आमूल परिवर्तन हो गए हैं और साथ ही साथ आत्माभिव्यक्ति, आत्मान्वेष और युग परिवर्तन जैसे बहुत से शब्द कला-मीमांसा में अवतरित किए गए हैं। यहां मैं उन बहसों में प्रवेश करना नहीं चाहता परन्तु मोटी बात यह है कि साहित्य की रचना व्यक्ति ही करता है। व्यक्ति और समाज के रिश्ते को लेकर कला मीमांसा में बहुत सारे सवाल उठाये गये हैं, विशेष करके वस्तुनिष्ठता और आत्म-परकता के प्रश्न। इसलिए व्यक्ति और उसकी चेतना का प्रश्न साहित्यिक समझदारी का केंद्रीय प्रश्न है।
उपनिषद काल से लेकर आज तक मानव चेतना के बारे में जितनी दार्शनिक अवधारणायें हैं उनमें मार्क्सवाद को छोड़कर सभी दर्शन चेतना की प्रक्रिया को द्वंद्वात्मक न मानकर या तो उसे विषयीगत मानते थे या विषयगत।
भाषा के माध्यम से व्यक्ति समाज के संपर्क में आया और समाज ने भाषा को व्यवस्थित किया। इसी प्रक्रिया में सामाजिक चेतना निर्मित हुई और सामुदायिक भावना बढ़ी। कालांतर में अर्द्ध विकसित मनुष्य ने रूप, रस, गन्ध, स्वर, स्पर्श के माध्यम से सौन्दर्य चेतना को भी परिष्कृत बनाया। सभ्यता और संस्कृति के विकास के क्रम में मार्क्सवाद ने सिद्ध किया कि सौन्दर्य वस्तु और व्यक्ति की द्वन्द्वात्मकता की उपज है परन्तु वस्तु चेतना से अलग होती है वस्तु चेतना का भी जन्म होता है।
भाववाद और वस्तुवाद के संघर्ष का यही मूल आधार है। आशय यह है कि साहित्य में व्यक्ति अभिव्यक्ति और सौन्दर्य का सामाजिक आधार होता है। इसी दृष्टि से व्यक्ति और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति को जांचा और परखा जाना चाहिए। चूंकि व्यक्ति सामाजिक प्राणी होता है इसलिए व्यक्ति की चेतना के गठन के बारे में  विचार करना आवश्यक है।
मनुष्य के कार्यों और व्यवहारों के संसार में उसकी भावनाएं, मनस्थितियां, प्रवृत्तियां, उद्देश्य और चेष्ठाएं एवं विचार व्यक्त होते हैं। इसी को व्यक्ति की चेतना कहते हैं। लेकिन व्यक्ति की चेतना बहुत जटिल एवं संशलिष्ट होती है। यह व्यक्ति और उसके प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश के अनेक घातों-प्रतिघातों के फलस्वरूप धारण करती है। उसकी चेतना के सामाजिक पक्ष को अनेक तत्व विकसित और प्रभावित करते हैं यानी उसकी सामाजिक स्थिति, सामाजिक सम्बंधों की  व्यवस्था में व्यक्ति का स्थान, शिक्षा व्यवस्था, परिवार, आर्थिक स्थिति आदि।  उदाहरण के लिए जब से निजी संपत्ति का जन्म हुआ तब से इससे संबद्ध मनुष्य की स्थिति में व्यक्तिवाद और अहम् -वाद का जन्म हुआ और शताब्दियों तक यह मनःस्थिति परम्परा के रूप में एक पीढ़ी को अपनी अगली पीढ़ी से मिलती रही। फलस्वरूप इसी के ढांचे में व्यक्ति की आदत बनती और बिगड़ती रही। बाद में यह स्वभाव का अंग बन गई।   
 सामंती और पूंजीवादी मनःस्थिति की यह विशेषता होती है कि वह निजी संपत्ति के संबंधों की अंधी शक्ति के रूप में लोगों के दिमाग में घर बना लेती है और अहंवाद, व्यक्तिवाद, अंध राष्ट्रीयता आिद जो इस व्यवस्था की उपज होते हैं उनका दास बना देती है। कुप्रवृत्तियों की यह दासता अमानवीयकरण और अपराधवृत्ति के लिए उकसाती रहती है और फिर यह आदत और स्वभाव में बदल जाती है। आदत और परम्परा की यह महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
पूंजीवादी समाज में मनुष्य का जीवन एक खंडित व्यक्तित्व है। इसलिए परम्परा, आदत, स्वभाव, अनैतिकता का संकट आज की व्यवस्था की अनैतिकता में गहरी जड़ें जमाए हुए है। नैतिक गुण, भावना, आदत, विश्वास का नाम है जो मानव व्यवहार में परिलक्षित होती है। दास प्रथा (मनुस्मृति आचार संहिता) के समाज में जब संकट आया तो दासता में दबे पिसे लोगों को अधिकाहीनता, दारिद्र्य, निष्क्रियता, सुख का त्याग अपनी वृत्तियों के दमन का उपदेश दिया गया ताकि यथास्थिति को बरकरार रखा जाए। इसी तरह सामंतवाद में दया और राजा को ईश्वर बनाया गया। पूंजीवाद ने सिखाया कि व्यक्ति और समाज का हित परस्पर शत्रुवत होता है। इसलिए जागरूक व्यक्ति, बुद्धिजीवी, कलाकार का यह दायित्व होता है कि वह इस प्रक्रिया को रेखांकित करे कि अतीत के तथा वर्तमान मानवता विरोधी व्यवस्था के प्रभाव क्यो कर लोगों के दिलों और दिमागों में बने हुए हैं और उन्हें कैसे दूर किया जाए। वह परिस्थितियां कौन सी हैं और क्यों हैं जिनमें अहंवाद उच्छृंखलता, धार्मिक उन्माद, अकेलापन, पशुत्व और बांझपन पनपता है।
साहित्य और विचारधारा (सिद्धांत) चेतना के क्षेत्र में अपना प्रभाव दिखाता है। यह चेतना ही मनुष्य के दैनिक जीवन और संघर्ष में प्रभावशाली हथियार का काम करती है और चेतना जब आदत में बदल जाती है तो समाज व्यवस्था -परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाता है। विचारधारा की भूमिका निरपेक्ष और निष्क्रिय नहीं होती। आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष तथा निर्माण में वह प्रत्यक्ष राजनीतिक अनुभव के साथ-साथ विकसित होती है। विचारधारा और भौतिक परिस्थिति के संबंधों को स्पष्ट करने के लिए वर्तमान भारत की अवस्था पर विचार करक और स्पष्ट करना होगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 42 वर्षों बाद भी कुछ आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ साम्प्रदायिकता, जातिवाद पनप रहे हैं और राष्ट्रीय एकता का बोध धूमिल दीख रहा है।
आजादी की लड़ाई में धर्मवाद और साम्प्रदायिकता को छोड़ा नहीं गया। कांग्रेसी (राष्ट्रीय पूंजीवादी) नेताओं ने सामन्ती शक्तियों के साथ गठबंधन किया था। नव्यवस्था यह उसी का प्रत्यक्ष परिणाम है। स्वतंत्रता आंदोलन पुनरुत्थानवादी झोंक के साथ विकसित हुआ था। रजनी पामदत्त ने इस पुनरुत्थानवाद के बारे में लिखा है- 'इस प्रकार वर्तमान सड़ांध और भ्रष्ट अध्यात्मिकता द्वारा ध्वस्त ग्रामप्रणाली के टूटे हुए अवशेषों द्वारा विलुप्त सभ्यता की राजसभाओं के मृत अवशेषों द्वारा वे हिन्दू संस्कृति - एक विशुद्ध की गई हिन्दू संस्कृति के सुनहरे सपने का निर्माण करना चाहते थे, जिसे वे एक आदर्श तथा ध्रुवतारे के समान अपने सामने रख सकें।  ब्रिटिश बुर्जुवा संस्कृति तथा विचारधारा के अपराजेय प्रवाह के विरुद्ध जो उनकी आंखों के सामने भारतीय बुर्जुवा वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग को पूर्णतया पराजित करती जा रही थी। इस देववाणी के अतिवादी देवभक्तों द्वारा सभी प्रकार के सामाजिक तथा वैज्ञानिक विकासों को विजेता की संस्कृति कहकर तिरस्कृत किया गया। प्राचीन परम्पराओं की हर शक्ति को यहां तक कि दृष्प्रभावों, सुविधाओं और रहस्यवादिता को आदर तथा सम्मान दिया गया।' (आज का भारत, पृ. 270-71)
जातिवाद विरोधी जो संघर्ष हुए उन्हें भी कृषि सम्बंधों के बदलने के संघर्ष से नहीं जोड़ा गया। आज भी एकाधिकारी पूंजीवाद ने सामन्तवाद से गठजोड़ कर लिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुली छूट दी गयी है। इस तरह साम्राज्यवाद, पूंजीवादी, सामन्तवादी विचारधारा हमारी चेतना, हमारे विचार, हमारी आदत, हमारी परम्परा, हमारे स्वभाव , हमारी नैतिकता में घुन की तरह लग गई है। उपभोक्ता संस्कृति का प्रदूषण और भी हमारे बाह्य एवं अंतःकरण को प्रदूषित कर रहा है। परन्तु विचारधारा सीधे-सीधे आर्थिक संबंधों की अनुकृति या प्रतिकृति नहीं होती।
मैं विचारधारा पर विशेष जोर इसलिए दे रहा हूं क्योकि साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद संकट के दौर में हैं। समाजवादी शक्तियों का प्राबल्य उसके ध्वंस के लिए एक कारक के रूप में विद्यमान है। इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए वह कला और संस्कृति के शस्त्रागार को ध्वस्त करने के लिए एक विचारधारा को कला से विच्छिन्न करने के लिए शीतयुद्ध और नवउपनिवेशवादी सांस्कृतिक संघर्ष की मुहिम छेड़े हुए है। बहुपूंजीवाद के संकट को मनुष्य का संकट बताकर बुर्जुआ सभ्यता के विघटन को संपूर्ण मानव संस्कृति का संकट सिद्ध करने में लगा है। राजनीतिक चारधारा के क्षेत्र में इसने फासिज्म को निर्मित किया । विश्वयुद्धों की विभीषिका से आज भी मानवता संत्रस्त है। लोगों की घृणा को दूसरा आयाम देने के लिए यह दार्शनिक क्षेत्र में भौतिकवाद और अनीश्वर से प्रत्ययवाद और रहस्यवाद की ओर अंततः प्रज्ञावाद, आत्मान्वेषण की भूलभुलैया में लोगों को विवेकहीनता की ओर उन्मुख करने में प्रयत्नशील है।
नैतिक क्षेत्र में पूरे संचार माध्यमो जैसे फिल्म, रेडियो, टीवी चैनल आदि माध्यमों से लोगों में अपराधवृत्ति, सेक्स को उभारने, नशीली दवा के प्रचार इत्यादि द्वारा भरपूर मुनाफा कमाने की शोषण प्रक्रिया विकसित हो रही है। आधुनिक विज्ञान की सारी उपलब्धियां इसी प्रतिसंस्कृति की सेवा में लगी हुई हैं। इनका कलात्मक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सैद्धांतिक, राजनीतिक आधार समुच्चय कम्युनिस्ट विरोधी विचारधारा है। इस तरह के आत्मिक क्रियाकलाप, जिसमें नीति शास्त्र, कला, विज्ञान दर्शन, शिक्षा के क्षेत्रों में परिव्याप्त हैं। लेनिन ने बार-बार लिखा है कि वर्ग विभाजित किसी भी समाज में वर्गेतर विचारधारा तथा उसके फलस्वरूप कोई वर्गेतर संस्कृति न तो है और न हो सकती है।
कला तथा संस्कृति को विचारधारा से अलग करने का ख्याल बुर्जुआ विचारधारा को मजबूत बनाना है। साम्राज्यवाद के इस हमले में कुछ मार्क्सवादी (संशोधनवादी) अर्न्स्ट फिशर, रोजेर गैरोदी आदि भी सहयोग दे रहे हैं। उनका भी कहना है कि विचारधारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं बल्कि विश्व का मिथ्या ज्ञान है।
इधर विचारधारा के अंत के सिद्धांत को जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। इस स्थापना के पुरोधा 'डेनियल वेलु' कहते हैं विचारधारा के अन्त से उनका तात्पर्य मार्क्सवादी विचारधारा के अन्त से है। फलतः पूंजीवाद के साथ समाजवाद की प्रतियोगिता या संघर्ष जितना तीव्र होगा उतना ही वैचारिक संषर्ष तीव्र और भयावह होगा। वर्तमान हिंदी साहित्य में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रमेश चंद्र शाह आदि लोगों की एक लम्बी कतार है जो उसी साम्राज्यवादी शिविर के वफादार सैनिकों का काम कर रहे हैं। उनका साहित्य पढ़िये- उनके साहित्य की सीमा भी यही है। कैसी विडम्बना है कि जिस तरह राजनीति में साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, सामंतवाद का गठजोड़ है उसी तरह साहित्य में भी यह लोग विचारधारा का अन्त, धार्मिक रहस्यवाद, कला और इतिहास से शत्रुता इत्यादि के फलसफे गढ़ रहे हैं। अन्ततः यह कम्युनिस्ट विरोधी शिविर की रणनीति और रणकौशल के तहत किया जा रहा है। इस शिविर के लोगों ने यह भी स्थापना की है कि रचनाकार तो स्वतंत्र होता है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के अनुसार लेखक को अपनी अन्तरात्मा की पुकार पर लिखना चाहिए। उसे समाज, वर्ग, राजनीति, इतिहास के दबाव में नहीं आना चाहिए। ये दबाव व्यक्ति की रचनाशीलता को कुंठित कर देते हैं।
 मैंने ऊपर उन सभी तत्वों की तरफ संकेत किया है, जिनसे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। साहित्य में व्यक्ति की अनुभूतियों के सन्दर्भ में बदलाव होता रहता है। जब रागात्मक संबंध परिवर्तित होते हैं तो उनके अभिव्यक्ति की, उनसे जुड़ने और टूटने की प्रणालियां भी परिवर्तित होती हैं। इसी परिवर्तन का कारण रूप विधान में परिवर्तन होता है। जो लोग अनुभूति अनुभूति चिल्लाते हैं वे रूप विधान और रूप परिवर्तन की इस वस्तुगत ऐतिहासिक प्रक्रिया को लोगों से छिपाते हैं । अतः अऩुभूति और रचना तथा रचनाकार का स्रोत समाज में खोजना चाहिए। साहित्य में अभिव्यक्त व्यक्ति अपने समस्त सामाजिक संबंधों में प्रकट होता है। समाज वर्गों में बंटा रहता है। हर वर्ग की विचारधारा होती है और हर वर्ग का एक राजनीतिक दल होता है। हर दल की इतिहास परक वर्ग संबंधों तथा परिस्थितियों के मूल्यांकन की अपनी समझ होती है। वह दल अपना प्रोग्राम  बनाता है कि कौन सी परिस्थितियां हैं, इन्हें कैसे बदला जा सकता है। इसलिए राजनीतिक वर्ग तथा उसका दल, उसका आन्दोलन, उसका संघर्ष रचनाकार के वस्तुगत स्रोत का सही आधार बनता है। राजनीति तथा राजनीतिक दल से जुड़ने में रचनाकार का व्यक्तित्व विकसित होता है।
साहित्य निर्माण एक निश्चित परिस्थितियों में एक निश्चित परिस्थिति में पैदा होता है। उस परिस्थिति विशेष को रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से, जो मनःस्थिति, वातावरण चरित्र निर्मित करता है। उसको एक मनःस्थिति एक चरित्र, एक मन, अनेक मनों से, अनेक मनःस्थितियों से अऩेक चरित्रों से जुड़ता ह ै। यह द्वंद्व उसका नहीं, समाज के लाखों लोगों के द्वंद्व रूप में दीखता है। इस तरह समाज की वास्तविकता उसके संघर्षों तथा उसके स्रोत से उद्घाटित करता है। प्रेमचंद का पूरा साहित्य इसका उदाहरण है। प्रेमचंद के साहित्य में भावों के जो ब्योरे दिए गए हैं, जिन सामाजिक संबंधों के सूत्रों का ताना-बना बुना गया है, जिन छोटी छोटी अन्तर्दशाओं का चित्रण किया गया है उसको पढ़कर पाठकों में जो सक्रिय प्रतिक्रिया होती है। वह विषयवस्तु साहित्य और समाज दोनों को आंदोलित करती है। अतः रचनाकार तथा साहित्य के विकास का बीज शोषित, पीड़ित, संघर्षशील जनता के जीवन में होता है। वही रचनाकार महान होता है जो परिस्थितियों को ठीक से समझकर उन्हें बदलने का प्रयास करता है। समझदारी का अर्थ सामाजिक संबंधों तथा उसको परिवर्तित करने की समझदारी से है। वह वास्तविकता को समझकर ज्यों का त्यों नहीं रखते, बल्कि वास्तविकता का रचनात्मक रूपांतरण करते हैं... लेकिन विचारधारा घुली मिली रहती है।
मेरी समझ में रचनाकार इस पर निरंतर दृष्टि रखता है कि परम्परा तथा अतीत ने  हमें कौन सा आधार दिया है। वर्तमान अतीत से कैसे टक्कर ले रहा है, भविष्य की भ्रूणावस्था कैसी है? के लेखक की कलात्मक क्षमता और उसकी रचनादृष्टि परिवेश को बदलने के साथ साथ अपने को स्वयं भी बदलने लगती है। इसलिए भविष्य की रूपरेखा यानी बदलाव के लक्षणों को अपने वर्तमान जीवन में ढूंढना चाहिए।
कलात्मक विधि में विचारधारा, समाजशास्त्र, भौतिक ज्ञान मीमांसा, अर्थ मीमांसा के बारे में सभी जानते हैं। विचारधारा का अर्थ यह है कि जीवन, समाज और इतिहास के प्रति लेखक का दृष्टिकोण क्या है? समाजशास्त्र का सन्दर्भ सामाजिक वास्तविकता में नये तथा पुराने के बीच संघर्ष की वस्तुपरक प्रक्रिया को समझना और उसके चित्रण से है। भौतिक ज्ञान मीमांसा के क्षेत्र में कला के माध्यम से यथार्थता का संज्ञान होता है। अर्थमीमांसा में मानव जीवन में जो मूल्यवान घटित हो रहा है या होना चाहिए, उससे संबंधित अवधारणा का प्रश्न है। कलात्मक विधि की अवधारणा में यह चीजें घुलीमिली रहती हैं।
इघर साहित्य किसके लिए अर्थात रचना की भाषा, उसके रूप विधान को लेकर गंभीर वाद विवाद उठे हुए हैं। क्या साहित्य जन साधारण को समझने के लिए लिखा जाए या कुछ प्रबुद्ध लोगों के लिए। एक ओर तुलसीदास हैं, कबीर हैं, प्रेमचंद हं, राहुल सांकृत्यायन है नागार्जुन हैं, दूसरी ओर निराला की राम की शक्ति पूजा, तुलसीदार, प्रसाद की कामायनी, मुक्तिबोध का चांद का मुह टेढ़ा है, शमशेर की कविताएं हैं। यह जटिल प्रश्न है। मेरी समझ से साहित्य के पाठक को भी साहित्य-संस्कार निर्मित करना पड़ता है।
रचनाकार और पाठक किसी रचना के सौन्दर्य से प्रभावित होकर जो प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, उसके पीछे मनुष्य की सामाजिक और ऐतिहासिक यात्रा की उपलब्धियां होती हैं। सामाजिक, आर्थिक स्थितियां, वर्ग चरित्र, मानसिकता और परम्परा से प्राप्त संस्कार होते हैं।
पूंजीवाद ने हमें जहां ला खड़ा किया है वहां अस्मिता का संकट गहराता जा रहा है। मनुष्य द्विधा विभक्त हो गया है। परन्तु प्रश्न संकट के स्रोतों को समझकर उसे हल करने का है। असल मुद्दा यह है कि संबंधों की संक्रांति, अलगाव, अजनबीपन के ऐतिहासिक कारणों के प्रति लेखक और पाठक कितना जागरूक है। निर्मल वर्मा आदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और रचना की स्वायत्तता की जो मुहिम छेड़े हुए हैं वह आतंक किसके खिलाफ और किसके पक्ष में चलाया जा रहा है। उनके पास सार्थक विकल्प, चेतना, सामाजिक सौन्दर्य बोध तथा मानवीय  प्रत्यय की परिकल्पना क्या है? यहीं रचना करने और रचना समझने के लिए कलात्मक दृष्टि पाने की तैयाी की जरूरत होती है। साहित्य किसके लिए का संबंध इन्हीं पाठकों से होता है। लेखक अपनी विचारधारा का स्रोत विशाल जन संघर्षशील जनता में पाता है। जनता (पाठक) रचना से उर्जा ग्रहण करती है। जब यह उर्जा संगठित शक्ति की तरह मानसिकता बन जाती है तो वह क्रांति की तैयारी में मदद करती है। संगठन जनता तक साहित्य को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। रवींद्रनाथ, नजरुल, सुकान्त की रचनाओं से प्रतिध्वनित रहते हैं। यही इसका प्रमाण है कि अशिक्षित जनता में रचना की (पाठकीय) कलात्मक दृष्टि पैदा की जा सकती है। अतिशय रगड़ करे जो कोई अनल प्रकट चंदन ते होई। इसी तरह आदत, स्वभाव को मानवीय बनाने की अन्तर्क्रिया चलती रहती है।


(जन संसार कोलकाता के वार्षिक अंक 89 में प्रकाशित)

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               
                 

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