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कौन लेगा उच्च शिक्षा की सुध? - आलोक वर्मा

 एनडीटीवी पर रवीश कुमार पिछले 15 दिन तक प्राइम टाइम में देश की उच्च शिक्षा का हाल दिखाया। पहले क्या हालात रहे हैं, 3 अक्तूबर 2001 को दैनिक ट्रिब्यून में उस पर प्रकाशित मेरी एक टिप्पणी।

'हल्ला -गुल्ला, शोर शराबा, जिंदाबाद-मुर्दाबाद व हाय-हाय के नारों के बीच पंजाब विश्वविद्यालय (पीयू) चंडीगढ़ से संबंद्ध नगर (चंडीगढ़) के सभी कालेजों के छात्र-छात्राओं ने हड़ताल कर दी तथा इकट्ठे होकर जुलूस की शक्ल में कुलपति के दफ्तर पहुंच गए। चंडीगढ़ के इतिहास में पहली बार सभी स्थानीय कालेजों के लगभग 5000 विद्यार्थियों ने धरना दिया और वि.वि. अनुदान आयोग द्वारा जारी उस प्रपत्र की कड़ी आलोचना की, जिसमें पंजाब तथा चंडीगढ़ के सभी 108 कालेजों के विद्यार्थियों के लिए 75 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य किए जाने का आदेश दिया गया था।'
  'हफ्ते में 40 घंटे पढ़ाना शिक्षक विरोधी है, जिसे किसी भी हालत में लागू नहीं किया जाना चाहिए। यह बात भी शिक्षक विरोधी है कि शिक्षक अपने काम का मूल्यांकन खुद करें और अपनी अटेंडेंस का ब्योरा खुद दें। ' पंजाब यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (पूटा) ने सप्ताह में 40 घंटे पढ़ाने संबंधी यूजीसी गाइड लाइन को टीचर विरोधी करार दिया है।
एक माह के अंदर पंजाब विश्वविद्यालय से संबंधित दो खबरें अखबारों की सुर्खियों में रहीं। पहली प्रतिक्रिया छात्रों की थी जो वि.वि. द्वारा 75 फीसदी उपस्थिति के विरोध में थी। उपस्थिति 75 फीसदी क्यों नहीं होनी चाहिए, इस सवाल के जवाब में छात्रों और उनके नेताओं के पास कोई ठोस तर्क नहीं है। कुछ छात्रों का तर्क है कि वि.वि., कालेजों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के ऊपर घरेलू जिम्मेदारी आ चुकी होती है, इसलिए इतनी कक्षाएं करना संभव नहीं है। जबकि कुछ अन्य का तर्क था कि  चूंकि केवल ऊंची डिग्री लेने से नौकरी नहीं मिलती, उसके लिए अन्य कोर्स भी करने होते हैं, ऐसे में निर्धारित संख्या में कक्षाएं करना मुमकिन नहीं होता।
दूसरे समाचार का संदर्भ यह है कि पिछले दिनों पीयू ने एक सर्कुलर जारी करके शिक्षकों को हफ्ते में 40 घंटे पढ़ाना जरूरी कर दिया। ऐसा यूजीसी की गाइड लाइन तथा प्रो. सत्यपाल सहगल समिति की रिपोर्ट के आधार पर किया गया। जिसमें हफ्ते में 40 घंटे पढ़ाना अनिवार्य किया गया है। दरअसल इस विवाद के पीछे यूजीसी का 1986 मे बना वह नियम है जिसमें साल में 180 दिन पढ़ाना जरूरी किया है।   उसमें तो यहां तक कहा गया है कि शिक्षण कार्य 180 से 220 दिन तक होना चाहिए। मगर कालेज/विश्वविद्यालयों के शिक्षक इस नियम की धज्जियां उड़ा रहे हैं। शिक्षाविद अमरीक सिंह ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि कालेजों में प्रतिदिन 5 कक्षाएं ली जाती हैं, जबकि पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़, पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला तथा गुरुनानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर में ह्यूमिनिटीज में औसतन प्रतिदिन तीन कक्षाएं ली जाती हैं। सत्यपाल गौतम की रिपोर्ट में कहा गया है कि पीयू में एक साल में औसतम 100 दिन कक्षाएं लगती हैं। इस मामले में एआईएफटीयूए के अध्यक्ष पी.पी. आर्य का कहना था कि 'टीचिंग प्रोफेशन स्वतंत्र है यहा बांधकर नहीं रखा जा सकता।'  उनका कहना था कि इस धंधे में कुछ 'गलत ' लोग आ गए हैं , जिनके कारण स्थितियां बदतर हुई हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पतन के क्या कारण हैं? ऐसे हालात क्यों पैदा हो रहे हैं कि आचरण के  विपरीत छात्र पढ़ाई न हो इसके लिए हड़ताल जैसे कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं। गतिशील समाज में उच्च शिक्षा की अवधारणाएं उस समाज की नैतिकताओं, आदर्शवादी अपेक्षाओं, बेहतर जीवन मूल्यों और व्यावहारिक जीवन की मांगों से जोड़कर तैयार की जाती हैं। उच्च शिक्षित व्यक्ति के बारे में माना जाता है कि वह मानव जाति के समक्ष बौद्धिक, सांस्कृतिक व्यवहार का मानक बन सके। अपने आचरण व्यवहार से वह शिक्षा से वंचित लोगों के लिए सामाजिक आश्वस्ति का स्रोत बन सके। वह आर्थिक, मानसिक विकास की शर्तें पूरी करने वाला व्यक्ति होता है। वे शर्तें उन अपेक्षाओं को पूरा करने की होती हैं जो अपेक्षाएं बेहतर समाज के निर्माण से जुड़ी होती हैं। क्या यह मान लिया जाे कि उच्च शिक्षा और उच्च शिक्षित व्यक्ति स इस तरह की अपेक्षा करना गलत है? वास्तविकता यह है कि उच्च शिक्षा और उच्च शिक्षित व्यक्तियों से सामान्य अपेक्षा आज भी वही है । मगर प्रश्न यह है कि इस सामाजिक अपेक्षा के बरअक्स वास्तविक परिदृश्य क्या है?
उच्च शिक्षा की गुणवत्ता और स्तर में कहीं गिरावट तो नहीं आई है? इसका उत्तर हां में हैं। शिक्षा पर जितना खर्च किया जाना चाहिए था, नहीं किया गया। भारत में तकरीबन हर सरकार ने शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की बात कही। लेकिन यह वादा कभी पूरा नहीं हुआ, बल्कि अब तो उच्च शिक्षा खर्च में लगातार कटौती की जा रही है। पिछले डेढ़- दो दशकों में उच्च शिक्षा में प्रति छात्र लागत में न सिर्फ कटौती हुई है, बल्कि उसकी सालाना वृद्धि दर नकारात्मक है। इसका  उच्च शिक्षा के विकास, गुणवत्ता और प्रदर्शन पर बुरा असर पड़ा है। विश्वविद्यालयों के बजट का 95 फीसदी धन वेतन और रखरखाव पर खर्च हो जाता है।
समय के अनुरूप शैक्षणिक ढांचे में परिवर्तन और विकास के लिए धन नहीं होता। आर्थिक तंगी के चलते ही पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं की स्थिति बदतर होती जा रही है। केंद्र सरकार ने 256 विश्वविद्यालयों तथा 11980 कालेजों के निमित्त वर्ष 1999-2000 में यूजीसी को 1323 करोड़ तथा 2000-2001 के बजट में 1407 करोड़ रुपये निर्धारित किए थे। माध्यमिक स्तर पर छात्रों की संख्या बढ़ने के कारण उच्च शिक्षा का ढांचा बुरी तरह चरमरा गया। इसके कारण अधिकांश विश्वविद्यालयों में दाखिलों और परीक्षा के अलावा कुछ नहीं हो रहा है।
यूजीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 88 प्रतिशत विद्यार्थी ही अंडरग्रेजुएट स्तर पर नामांकन करा पा रहे हैं। इनमें से 11 फीसदी विद्यार्थी ही पोस्ट ग्रेजुएट में दाखिला लेते हैं, जबकि मात्र एक फीसदी विद्यार्थी शोध करते हैं।
क्या आर्थिक तंगी के कारण सरकार उच्च शिक्षा पर उचित मात्रा में धन खर्च नहीं कर रही है? क्या उसके पास कोई विकल्प नहीं है? सवाल प्राथमिकता और उससे ज्यादा दृष्टि और परिप्रेक्ष्य का है। वर्तमान सरकार की प्राथमिकता शिक्षा नहीं रक्षा है। जहां रक्षा पर बजट बढ़ा दिया जाता , वहीं शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए सरकार के पास धन नहीं है।
पैसा है भी तो उसे शिक्षा में निवेश करने के लिए जो दूरदृष्टि चाहिए, वह सरकार के पास नहीं है। क्योंकि वर्तमान सरकार विश्वबैंक के चश्मे से सब कुछ देख रही है। यह सरकार तो शिक्षा के एकमात्र एजेंडे पर जुटी हुई है कि किस तरह से विश्वविद्यालयों में ज्योतिष की पढ़ाई शुरू की जा सके। सच तो यह है कि उच्च शिक्षा को को पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया गया है। बाजार उच्च शिक्षा की प्राथमिकताएं तय कर रहा है।
यह भी सच है कि उच्च शिक्षा और भारतीय विश्वविद्यालय दिशाहीनता, प्रयोगहीनता, सृजनशीलता के अभाव, पुरातन पाठ्यक्रम, गुटबंदी, नियुक्तियों में पक्षपात और वित्तीय संसाधनों के दुरुपयोग के शिकार हैं। शिक्षा और शोध के क्षेत्र में योजना, दिशाहीनता, गुणवत्ता की कमी, राजनीतिक गुटबंदी जैसे रोग जड़ जमाये हुए हैं। संसाधन सीमित हैं और उनका भी उपयोग नहीं हो पा रहा है। विश्वविद्यालयों के शोध संस्थान धार्मिक कट्टरता, जातिवाद और क्षेत्रवाद के केंद्र बन गए है। अध्यापकों का वेतन और सुविधाएं बढ़ी हैं लेकिन शिक्षकों की रुचि शोध, पठन-पाठन और अध्यापन में घटी है। ये कारक शिक्षा के महत्वपूर्ण आयाम सामाजिक समरसता को तोड़ रहे हैं।  उच्च शिक्षा बदहाली की गर्त में है- अध्यापक और शिक्षार्थी, दोनों असंतुष्ट हैं।
प्रकाशन की तिथि - 3 अक्तूबर 2001 (दैनिक ट्रिब्यून)


 

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