सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं
(एड्स पर अभी पिछले दिनों एक देश व्यापी आंकड़ा जारी किया गया है। नवंबर 2002 तक क्या हालात थे इस पर मैंने एक लेख लिखा था। इसके बाद 2007 में इस विषय पर लिखा अपना एक लेख दूंगा आलोक वर्मा)

एड्स; आंकड़ों में मत उलझिए, खतरे को समझिए
आलोक वर्मा


'एक्वायर्ड डिफिसिएंसी सिंड्रोम' (एड्स) और 'ह्यूमन डिफिसिएंसी वायरस' (एचआईवी) का खौफ एक बार फिर देशवासियों पर हावी हो गया है। दुनिया के सबसे अमीर और सूचना प्रौद्योगिकी के शहंशाह  बिल गेट्स ने भारत आकर यहां एड्स/एचआईवी संक्रमित रोगियों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताई और उनके उन्मूलन के लिए 500  करोड़ रुपये के अनुदान की घोषणा की तो दोनों बातों को लेकर विवाद छिड़ गया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री शत्रुघ्न सिन्हा ने आगामी दिनों में भारत में रोगियों की संख्या के अनुमान को लेकर न सिर्फ चिंता जताई, बल्कि उसे विदेशी एजेंसियों का षड्यंत्र तक बता दिया। उन्होंने माना कि देश में इस समय 3.97 मिलियन लोग एचआईवी संक्रमण के शिकार हैं, लेकिन इस बात से सहमत नहीं थे कि भारत में 2010 तक एड्स रोगियों की संख्या 25 मिलियन हो जाएगी। इससे पहले बंगलूर में अमेरिकी राजदूर ब्लैक बिल ने 25 मिलियन वाला आंकड़ा प्रस्तुत किया था और इस महामारी पर नियंत्रण के लिए अमेरिका की तरफ से अगले पांच वर्षों में 125 मिलियन डालर दिलाने की घोषणा की थी। उस समय अपने 'शाट गन' कुछ नहीं बोल पाये थे लेकिन बिल गेट्स की घोषणा के बाद अपनी नाराजगी जता दी।
सवाल यह नहीं है कि 2010 तक भारत में 25 मिलियन लोग  एड्स/एचआईवी पीडि़त हो जाएंगे या 2025 तक विश्व के सर्वाधिक रोगी यहां होंगे, जैसा कि विश्व बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठन और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वार्थ को देखते हुए उनका कुप्रचार भी मान लिया जाए तो अब तक जिस अनुपात इनके मरीजों की संख्या बढ़ी है उसको कैसे झुठलाया जाए। केंद्र सरकार और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन की तमाम कवायदों के बावजूद एड्स पीड़ितों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है जो चिंता का विषय है।
भारत में पहला एचआईवी केस 1986 में तमिलनाडु में सामने आया, जहां 6 श्रमिक इससे संक्रमित पाये गये और 2000 में प्रकाशित नाको की रिपोर्ट (1998-99) में बताया गया कि 31 मार्च, 99 तक  भारत में कुल एड्स रोगियों की संख्या 7012 हो चुकी थी जबकि 30 अप्रैल 2000 तक 35 लाख लोगों के रक्त की जांच की गई, जिनमें 97 हजार से ज्यादा लोग एचआईवी संक्रमित पाये गए। इस महामारी के लिए महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और मणिपुर 'डैंजर जोन' घोषित कर दिये गये। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि भारत में एड्स से पीडित अधिकांश लोग 15 से 49 की उम्र के बीच के हैं। इनमें महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की संख्या ज्यादा है। इसी को आधार बनाकर नाको और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया कि भारत में इस समय एचआईवी के रोगियों को न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने के लिए 46 हजार करोड़ रुपये चाहिए।
केंद्र ने राज्य स्तरीय एड्स कंट्रोल सोसायटियों को राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के तहत 1999-2000 में 283 लाख रुपये तथा 2000-01 में 237 लाख रुपये दिये थे। भारत में एड्स नियंत्रण अभियान का यह दूसरा चरण है। दूसरा चरण 1999-2004 तक है। अभियान के पहले चरण में भारत को विश्वबैंक ने 550 करोड़ दिए थे जबकि कुल खर्च 800 करोड़ से ज्यादा हुआ। दूसरे चरण में नाको 1425 करोड़ रुपये खर्च करेगा। इसमें से 1125 करोड़ रुपये विश्व बैंक बतौर कर्ज देगा। इसके अलावा अमेरिका तथा ब्रिटिश सरकार के अंतरराष्ट्रीय अनुदान विभाग भी सहायता राशि देंगे।
प्रश्न यह है कि अभी तक एड्स नियंत्रण पर जो राशि खर्च की गई उसका परिणाम क्या निकला? लगता तो यही है कि वांछित सफलता हासिल नहीं हो पायी। जागरूकता पैदा करने के लिए स्वयं सेवी संस्थाओं को जो रकम बांटी गई उससे उनकी जेबें तो अवश्य भर गईं होंगी लेकिन संदेश कितने लोगों तक पहुंचा? पांच सितारा होटलों में सेमिनार, पर्चों और रिपोर्टों के सहाते एड्स जागरूकता का ढिंढोरा जितना भी पीट लिया जाए, हकीकत मुंह चिढ़ाएगी ही। आंकड़े बताते हैं कि एचआईवी संक्रमण 15 फीसदी ट्रक ड्राइवरों में होता है। अब ट्रक चालक को पांच सितारा होटलों में आयोजित सेमिनार में शामिल होने से रहे, न ही उनके पास पर्चे पढ़ने की मोहलत है। इसलिए जागरूकता अभियान 'पंचतारा संस्कृति' से हटकर गली, मोहल्लों और स्लम एरिया में ले जाने की जरूरत है, तभी बेहतर परिणाम की आशा की जा सकती है।
इसी तरह सरकार एड्स/एचआईवी पीडि़तों के लिए मुफ्त दवाएं देने के लिए धन मुहैया कराती है। लेकिन डाक्टर तो एड्स मरीजों को छूने से मना कर देते हैं, इलाज की कौन कहे? अभी मीडिया की सुर्खियां बने दो मामले सरकारी दावो की पोल खोल देते हैं। दिल्ली में एक राज्य कर्मचारी को एड्स हो गया। जब उसे इसकी जानकारी मिली तो वह राष्ट्रीय राजधानी के अस्पतालों में इलाज के लिए भटका, लेकिन वहां उसका इलाज करने से मना कर दिया गया। बेचारा तिल-तिल कर मरते हुए अंतिम सांस का इंतजार करने लगा। उसी समय मीडिया ने उसका मामला उजागर किया तो दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र, दिल्ली सरकार तथा दिल्ली के सभी बड़े अस्पतालों की खबर ली। न्यायमूर्ति देविंदर गुप्ता और न्यायमूर्ति ए.के.सीकरी ने लोक नायक जय प्रकाश अस्पताल, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, संजय गांधी मेमोरियल अस्पताल तथा महाराजा अग्रसेन अस्पताल को नोटिस देकर उनका स्पष्टीकरण मांगा। कोर्ट की सक्रियता को देखकर दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री ए.के.वालिया ने लोकनायक जय प्रकाश अस्पताल के अधीक्षक को तुरन्त एड्स पीडि़त को भर्ती कर इलाज शुरू करने का आदेश दिया। ऐसा ही एक मामला भिखीविंड (पंजाब) का है। वहां का एक ट्रक ड्राइवर, उसकी पत्नी और बेटी एड्स संक्रमण का शिकार हो गये। वे इलाज के लिए अमृतसर के सरकारी अस्पताल गये। वहां डाक्टरों ने उन्हें छूने से मना कर दिया। यही सलूक गुरुनानक देव मेडिकल कालेज अस्पताल के डाक्टरों ने किया। बाद में पीजीआई चंडीगढ़ में उनका इलाज शुरू हुआ। गवर्नमेंट मेडिकल कालेज के अधीक्षक ने माना कि शहर के सरकारी डाक्टर एचआईवी संक्रमित लोगों का इलाज करने से हिचकते हैं। 
ऐसे तो न जाने कितने एड्स पीड़ित अस्पतालों से डांटकर भगा दिए जाते होंगे। कितने मामले  कोर्ट की नजरों में आएंगे। इसके अलावा अभी भी काफी संख्या में वे रोगी हैं जो लज्जा, बदनामी और समाज की उपेक्षा के भय से और धन के अभाव में अस्पतालों में जाने से डरते हैं। उनका इलाज कैसे होगा? उनके बचाव का तरीका क्या है?  भले ही सरकार की नीयत में खोट न हो, गैर सरकारी संस्थायें बेईमान न हों लेकिन एड्स उन्मूलन का लक्ष्य तो दूर दूर तक संभव नहीं दिखता।
ऐसे में केवल एक ही तरीका है जो समस्या से निजात दिलाने में सबसे अधिक सहायक हो सकता है। वह है लोगों को एड्स से बचाव के प्रति जागरूक बनाना। विश्व बैंक का मानना है कि इस महामारी को रोकने का सर्वाधिक असरदार उपाय यह होगा कि संक्रमित लोगों के बीच तत्काल पहुंचा जाए। इसके तहत देह व्यापार करने वालों, ट्रक चालकों, प्रवासी मजदूरों, समलैंगिकों और सुईयों से नशीली दवाओं का इस्तेमाल करने वालों से समुचित तरीके से निपटा जाए।
सुरक्षित संभोग, निरापद रक्तदान, संक्रमित दंपतियों द्वारा बच्चा पैदा करना ऐसे उपाय हैं जो एड्स के साथ-साथ स्वास्थ्य रक्षा उपयोग में लाये जाने चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने तो यहां तक कह दिया है कि एचआईवी मिलने के बाद युवक/युवती को शादी का अधिकार नहीं रह जाता। आंध्र के स्वास्थ्य मंत्री की सलाह भी उपयोगी है कि शादी जन्मकुंडली देखकर नहीं, रक्त परीक्षण करा कर की जानी चाहिए। एड्स की भयावहता के साथ ही इसके रोगियों के साथ सहानुभूति रखने की जरूरत है। उन्हें अपनी उपेक्षा और अलगाव का बोध नहीं होना चाहिए। साथ ही उन्हें यह भी आभास दिलाना होगा कि यदि वे खामोशी बनाये रहे और डाक्टर के सामने पेश नहीं हुए तो उसका क्या नतीजा होगा।
(22  नवंबर 2002 को दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सामाजिक यथार्थ की प्रतिनिधि कहानियां

आलोक वर्मा शेखर जोशी ‘ नई कहानी ’ के कथाकारों में से एक हैं। शायद वे अकेले कहानीकार हैं, जिसने नई कहानी के दौर में लिखना शुरू किया और आज भी उसी सक्रियता के साथ रचनारत हैं, जबकि अमरकांत जैसे एकाध कहानीकारों को छोड़ दिया जाए तो उस दौर के अधिकांश कथाकार पिछले कई सालों से ‘ न लिखने के कारण ‘ पर मनन कर रहे हैं। शेखर जोशी की पहली कहानी ‘ दाज्यू ‘ 1953-54 में छपी थी और अपनी पहली क हानी से वे चर्चित हो गए थे। अमूमन उनकी प्रकाशित सभी कहानियां चर्चा के केंद्र में रहती हैं। शेखर जोशी चूंकि नई कहानी आंदोलन की देन हैं, इसलिए उनकी कहानियों में उस दौर की प्रवृत्तियों का पाया जाना लाजिमी है। लेकिन किसी खास दौर की प्रवृत्ति में बंधकर वे नहीं रहे। उन्होंने समय की रफ्तार के साथ बदलते जीवन को देखा, परखा और जीवन की उसी संवेदना को, समाज को, समाज की उसी विडंबना को कहानियों के माध्यम से विश्लेषित किया। इस बारीक पकड़ ने ही उन्हें सदैव शीर्षस्थ कहानीकार बनाए रखा। अपने रचनाकर्म के बारे में शेखर जोशी ने लिखा है- ‘ छोटी उम्र में मातृविहीन हो जाने के बाद पर्वतीय अंचल के प्राकृतिक सौंदर्य से वनस्पतिव

परिवर्तन और निरंतरता का द्वंद्वः लुप्त होते लोगों की अस्मिता

- परशुराम आलोचना , वाद-विवाद और संवाद की संस्कृति है। जड़ और ठहरे मूल्यों के विघटन और युगीन संदर्भों में नये मूल्यों के सृजन और विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक संबंध होता है। यदि रचना और आलोचना में द्वंद्वात्मक वैचारिक संघर्ष नहीं है तो साहित्य की तत्कालीन परंपरा की विकास -गति अत्यधिक धीमी पड़ जाती है। रचना की तरह आलोचना भी एक सांस्कृतिक परंपरा है और आलोचना इसमें अपनी सक्रिय भूमिका तभी निभा सकती है जब वह केवल स्वीकृत‌ि न दे , सवाल भी उठाये और मिथ्या स्वीकृत‌ि को चुनौती भी दे।  वरिष्ठ हिंदी आलोचक विमल वर्मा की आलोच्य पुस्तक " लुप्त होते लोगों की अस्मिता" में इसका अनुभव किया जा सकता है। फिर भी आलोचना के संकट को लेकर जिस तरह और जिन प्रश्नों को रेखांक‌ित किया जा रहा है , उस पर संक्षिप्त चर्चा भी आवश्यक है। हम एक राजनीतिक समय में रह रहे हैं। इसल‌िए रचना और आलोचना तत्कालीन राजनीतिक संदर्भों से अछूती नहीं रह सकती। अपने समय का पक्ष या प्रतिपक्ष उपस्थित रहता ही है। ऐसे समय में आलोचना केवल साहि‌त्यिक और सांस्कृतिक ही नहीं होगी बल्कि वह राज

बालश्रम मजबूरी में मजदूरी या कुछ और

आलोक वर्मा कोहरे से ढकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह- सुबह ! बच्चे काम पर जा रहे हैं हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह भयावह है इसे विवरण की तरह लिखा जाना लिखा जाना चाहिए इसे एक सवाल की तरह काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे ? हिंदी के एक युवा कवि की यह मात्र कपोल कल्पना नहीं है, बल्कि व्यवस्था के कटु यथार्थ से परिचय कराती है यह कविता। यह एक सवाल है और यह सवाल किसी एक देश पर लागू नहीं होता । पूरी दुनिया इसकी चपेट में है। विश्वभर में बच्चों के खेलने -कूदने और पढ़ने -लिखने की उम्र में मजदूरी करने को विवश होना पड़ रहा है। बाल- श्रमिकों के नाम पर परिभाषित पांच से चौदह वर्ष की उम्र के बच्चे अपने अरमानों का गला घोंटकर, भविष्य दांव पर लगाकर पेट भरने के लिए मेहनत-मजदूरी को मजबूर हैं। दिलचस्प यह है कि जैसे-जैसे राष्ट्र तरक्की (विकास-शील) की डगर पर बढ़ रहे हैं, उसी गति से बाल-श्रमिकों की संख्या भी बढ़ रही है। आज दुनिया में बाल श्रमिकों की अधिकतम दर अफ्रीका में है। इसके बाद एशिया और लातिनी अमेरिका की बारी आती है। मगर श्रम-शक्ति में बच्चों की अधिकतम संख्या भारत में है। स्थिति