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इक्कीसवीं शताब्दी में भी सपना बना है 'सबके लिए स्वास्थ्य'


 - आलोक वर्मा

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अज्ञात बीमारी से बच्चों के मरने से कोहराम मचा हुआ है। अब तक अकेले सहारनपुर जिले में इस बीमारी के चलते 170 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। इसके अलावा पड़ोसी जिलों मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ और उत्तरांचल के हरिद्वार में भी बीमारी ने कहर ढाया है। जैसा कि होता है, पहले प्रशासन चुप्पी साधे रहा और जब मीडिया में मामले ने जोर पकड़ा तो अधिकारी भी जागे। लेकिन तब तक मरने वाले बच्चों की सूची काफी लंबी हो चुकी थी। यह जरूर है कि दिल्ली और लखनऊ में बैठे आकाओं को संतुष्ट करने के लिए स्वास्थ्य विभाग के एकाध अफसरों को दंडित कर दिया गया। लखनऊ और दिल्ली से विशेषज्ञों की टीमें आईं और कुछ 'सैंपल' लेकर  लौट गयीं। कई दिन बीतने के बाद भी सही बीमारी का पता नहीं चल सका और न ही बचचों की मौत का सिलसिला रोका जा सका है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी वैसे तो अधिकारिक रूप से कुछ भी कहने से बच रहे हैं, लेकिन कुछ का मानना है कि यह मस्तिष्क शोथ की मारी है तो कुछ इसे मियादी बुखार बता रहे हैं।
लेकिन यह अकेला मामला नहीं है जब स्वास्थ्य विभाग रोगों पर काबू नहीं पा सका और देखते-देखते कई दर्जन बच्चे मौत की नींद सो गए। अभी सितंबर महीने में कोलकाता के बीसी राय मेमोरियल चिल्ड्रेंस अस्पताल में 9 बच्चों की मौत हो गयी। ये बच्चे अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराये गये थे, लेकिन वहां आक्सीजन सिलेंडर की कमी के चलते इन बच्चों की मौत हुई। अगस्त के अंतिम हफ्ते में 31 बच्चों की मौत हुई, जबकि अगस्त माह में कुल 200 बच्चों ने दम तोड़ दिया, लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी मामले को नियंत्रण में बता रहे थे। बच्चों के इस बड़े अस्पताल में न सिर्फ आक्सीजन सिलेंडरों की कमी थी, बेड (शैय्या) भी कम थे। यहां बाल चिकित्सा विभाग में 250 बेड उपलब्ध थे जबकि रोगी 302 थे। एक-एक नर्स 40-40 बच्चों की तीमारदारी में जुटी थीं, जबकि अनुपात 1ः5 का होना चाहिये। इस दौरान प्रतिदिन पांच से छह बच्चों की मौत हो रही थी और डाक्टरों का कहना था कि बड़े अस्पताल में इतनी मौत सामान्य है।
इसी तरह का एक हादसा पिछले वर्ष असम में भी हुआ। वहां स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही से विटामिन ए की खुराक से 23 बच्चों की मौत हो गयी, जबकि 953 बच्चों में विष के लक्षण पाये गये। यूनीसेफ के सहयोग से एक अभियान चलाया गया था 'विटामिन ए की कमी के खिलाफ संघर्ष'। इस अभियान के तहत 11 नवंबर (2001) को पांच साल तक के 3.17 मिलियन बच्चों को 2 एमएल दवा पिलानी थी। लेकिन 2.8 मिलियन बच्चों को ही दवा दी जा सकी। बच्चों की मौत के कारणों में से एक बताते हैं 5 एमएल पिलाना, जबकि भारत सरकार का स्पष्ट आदेश है कि 2 एमएल दवा ही पिलायी जानी चाहिए। कहा जाता है कि स्वास्थ्य कर्मियों को इस मामले में चेतावनी नहीं दी गयी। इस मामले को गंभीरता से तब लिया गया जब असम मानवाधिकार आयोग ने कड़ा रुख अपनाया। तब जाकर राज्य सरकार ने जांच बैठाई । ये भी संदेह है कि ये मौतें विटामिन ए के प्रबंधन (रखरखाव) में लापरवाही का नतीजा भी हो सकती हैं। जांच के बाद मानवाधिकार आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इस अभियान के लिये स्वास्थ्य कर्मियों को कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था।
सरकारी लापरवाही और उपेक्षा के दंश से केवल उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल या असम ही पीड़ित नहीं हैं, बल्कि सभी राज्यों का यही हाल है। देश में करीब-करीब सभी जिला मुख्यालय और बड़े कस्बों में सरकारी अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। वहां डाक्टरों और कर्मचारियों की 'कृपा' हो तो कुछ दवायें और सुविधाएं मिल ही जाती हैं। लेकिन छोटे कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य की बागडोर 'झोलाछाप डाक्टरों' पर निर्भर है। ऐसी जगहों पर स्वास्थ्य केंद्रों के पास अगर भवन हैं तो डाक्टर या कर्मचारी नहीं होंगे। कर्मचारी होंगे तो भवन नहीं होंगा। दवाएं और चिकित्सा उपकरण उपलब्ध होने की चर्चा करना बेमानी है। गुजरात का उदाहरण लें, वह देश का सबसे संपन्न राज्य है। एक गैर सरकारी संस्था सेवा द्वारा किये गये सर्वे के मुताबिक प्रदेश अपने नागरिकों की स्वास्थ्य सेवाओं की जीडीपी का 1.3 प्रतिशत खर्च करता है। उसके पिछड़े जिलों बांसकाठा, कच्छ और आदिवासी बहुल पंचमहल में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बड़ी दयनीय है तो उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा असम तथा राजस्थान आदि राज्यों में चिकित्सा सुविधाओं की कल्पना ही की जा सकती है। वैसे बड़े शहरों में स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चैरिटेबल अस्पताल चलाये जा रहे हैं, लेकिन वे भी कस्बों या ग्रामीण इलाकों में आने के लिए तैयार नहीं हैं।
समृद्ध राज्यों हरियाणा और पंजाब में स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल भी जान लेना जरूरी है। हाल ही में जारी की गयी 'पंजाब डेवलपमेंट रिपोर्ट 2002' के मुताबिक अल्प रक्तता (खून की कमी) के शिकार सबसे अधिक बच्चे हरियाणा में हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि हरियाणा के 6 से 35 माह की उम्र के 83.9 फीसदी बच्चों में खून की कमी है। लेकिन खून की कमी के शिकार केवल बच्चे ही नहीं है, बल्कि 15 से 49 आयु वर्ग की 47 फीसदी महिलाएं भी इससे पीड़ित हैं। खून की कमी के मामले में कमोबेश यही हाल अन्य राज्यों का भी है। पंजाब में 41.4 फीसदी महिलाएं तथा 80 फीसदी बच्चे अल्प रक्तता के शिकार हैं , जबकि राजस्थान में 48.5 प्रतिशत महिलाएं, 82.3 प्रतिशत बच्चे, पश्चिम बंगाल में 62.7 प्रतिशत महिलाएं व 78.3 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं, जबकि अल्प रक्तता का राष्ट्रीय औसत 74.3 प्रतिशत प्रतिशत ह। पंजाब में 24 से 36 माह के बच्चों में सबसे अधिक खून की कमी पायी गयी। ऐसे बच्चों का प्रतिशत 79.3 है। सबसे अधिक गांवों के 80.9 फीसदी बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं। इसके साथ ही अनुसूचित जाति के 86.1 फीसदी बच्चों में खून की कमी है।
स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में नाकामियों की पोल 'नेशनल हेल्थ पालिसी 2002' (एनएचपी-2002) की रिपोर्ट ही खोल देती है। रिपोर्ट के मुताबिक जनसंख्या के 20 फीसदी लोगों की ही पहुंच ओपीडी तक होती है, जबकि 45 प्रतिशत लोग ही सरकारी अस्पतालों तक पहुंच पाते हैं। 1990 से लेकर '99 तक स्वास्थ्य और चिकित्सा पर बजट जीडीपी का एक प्रतिशत से अधिक निर्धारित किया गया, लेकिन खर्च किया गया मात्र 0.9 प्रतिशत। विदेशों में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य पर खर्च से भारत की तुलना करें तो पता चलता है कि भारत सरकार अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को लेकर कितनी चिंतित है। ब्राजील अपने जरूरतमंद नागरिकों को मुफ्त दवा उपलब्ध कराता है। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर हर वर्ष प्रति व्यक्ति 170 रुपये से भी कम स्वास्थ्य पर खर्च होता है। भारत में 1000 की जनसंख्या पर 4.3 बेड उपलब्ध हैं। विकसित देश सकल घरेलू उत्पाद का 7 प्रतिशत खर्च करते हैं। यदि भारत में जीडीपी का 4 प्रतिशत भी खर्च किया जाए तो यहां 15.20 बिलियन डालर खर्च करने पड़ेंगे। ध्यान देने की बात यह है कि अधिकांश विकासशील राष्ट्र जीडीपी का 4 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।
(दैनिक ट्रिब्यून के 18 दिसंबर 2002 के अंक में प्रकाशित)

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