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सल्तनत शासन में साम्प्रदायिकता का प्रश्न- आलोक वर्मा

यह लेख 1991 में लिखा गया था। उस समय भी आज जैसे ही हालात थे। सत्ता के लिए धर्म क नाम पर जनता की भावनाओं का दोहन किया जा रहा था। इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा था। एक माहौल बनाया जा रहा था जो बाद में बाबरी ढांचा ध्वंस के रूप में सामने आया। आज भी कुछ वैसे ही हालात हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय वे लोग सत्ता में आने के लिए वह सबकुछ कर रहे थे और आज वे सत्ता में हैं। पिछले समय में साहित्यकारों पर हमले और हत्या इस बात की तसदीक करती है कि आज खतरा बढ़ गया है। ताजमहल से लेकर  मुगलकाल में निर्मित कला और पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण तमाम नायाब इमारतों को ढहाने या खारिज करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है ताकि लोगों के बीच दूरी बढ़े। पुरानी किताबों और पत्रिकाओं को उलटने पलटने के दौरान उनके बीच से यह लेख मुझे मिल गया तो सोचा कि क्यों न इसे आप लोगों से साझा करूं। हां एक बात और, यह लेख वर्ष 1991 में कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से प्रकाशित दैनिक छपते-छपते के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। इसे बगैर किसी बदलाव के हूबहू उतार दे रहा हूं। संपादक की टिप्पणी भी साथ में है-
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जिन सवालों ने आज हमारे देश और समाज पर खतरा उपस्थित कर रखा है- उनमें साम्प्रदायिकता का सवाल सबसे अहम तथा महत्वपूर्ण है। साम्प्रदायिक ताकतें राजनीति का सहारा लेकर लोगों की साम्प्रदायिक भावना को उभारती हैं। जगह-जगह दंगे फसाद होते हैं। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में साम्प्रदायिकता का प्रश्न एक गंभीर चुनौती है। धर्म- निरपेक्ष देश में इस प्रकार की भावना को हवा देना देश की एकता और संप्रभुता के साख खिलवाड़ है। आलोक  वर्मा का लेख प्रकारांतर से उसी प्रश्न को उभारता है।
हर कोई संकट की घड़ी में अपने अतीत को याद करता है, अपनी जड़ों को टटोलता है। संकट की घड़ी में अपनी परम्परा का मूल्यांकन  अपना मूल्यांकन होता है। प्रत्येक जाति अपनी परम्परा की आंखों से यथार्थ को छानती है। संस्कृति मनुष्य की आत्म चेतना को ही नहीं दिखाती बल्कि सामूहिक चेतना के द्वारा विश्व को जोड़ती है। आज हम समस्त मूल्यों और मान्यताओं का स्रोत अपनी चेतना में ही ढूंढते हैं। एक ओर इतिहास का संबंध अतीत से होता है दूसरी ओर उसकी महत्वपूर्ण भूमिका समाज के भावी निर्माण में होती है। अतीत के साक्ष्य के सहारे इतिहासकार उसके विवेचन विश्लेषण में अपने समकालीन परिवेश से भी प्रभावित होता है इसलिए व्याख्या की प्रक्रिया दोहरी बन जाती है। अर्थात वर्तमान की आवश्यकताओं को विकास के नियमानुसार अतीत में ढूंढा जाए और अतीत के बिम्ब का वर्तमान से सामंजस्य स्थापित किया जाए। अतीत का बिम्ब भविष्य में क्या होगा यह तो इतिहासकार की ही मौलिक दन होती है।   
अब अगर हम इतिहास की विकृत, एकांगी व्याख्या करके उसका उपयोग मनमाने ढंग से करें, इतिहास के उस भाग का उपयोग लोगों को गुमराह करने तथा वास्तविकता को छुपाने के लिए करें तो क्या यह गलत नहीं होगा? इसी तरह का कार्य आज के कुछ तथाकथित धर्माचार्य, राजनेता और इतिहासकार कर रहे हैं। ये उदाहरण वे मध्यकालीन इतिहास से देते हैं। मैं अपने इस छोटे से लेख में मध्यकालीन (मध्यकाल का आशय मेरे इस लेख में मध्यकाल के एक भाग सल्तनत काल से लिया जाए) सत्ता के स्वरूप पर कुछ प्रकाश डालूंगा।
मघ्यकालीन भारत में राज्य के संबंध में इतिहासकारों में पर्याप्त विवाद है। यह विवाद राज्य व धर्मप्रधान संबंधी दो महत्वपूर्ण मान्यताओं से संबद्ध है। जो इतिहासकार राज्य को धर्मप्रधान दृष्टि से देखते हैं उनका कहना है कि राज्य पर धर्म का प्रभुत्व था। दूसरे प्रकार के इतिहासकारों के अनुसार राज्य का स्वरूप सैनिक था। क्योंकि राज्य सेना के समर्थन पर बहुत अधिक आश्रित था। राज्य को सैनिक शासक वर्ग के हितों की अभिवृद्धि करनी होती थी और इसी कारण राज्य के अन्य सारे मामले उन्हीं के अधीन थे।
भारत के अतीत का अनुसंधान अंग्रेज शासकों के तत्वावधान में आरम्भ हुआ। चूंकि यूरोपीय राज्य ईसाइयत से बहुत अधिक प्रभावित थे अतः स्पष्ट है कि अग्रेज लेखकों और प्रशासकों ने अपने स्वयं के ढांचे के अनुरूप ही मध्यकालीन भारतीय समाज को देखा और वैसा ही मूल्यांकन किया। हिन्दुओं और मुसलमानों को दो पृथक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित करके आंग्ल लेखकों ने 'भारत को बांटो और राज्य करो' द्वय राष्ट्रीय नीति के उद्देश्य की पूर्ति की। उनका मानना था कि मध्यकालीन (सल्तनत कालीन) भारत में मुस्लिम राज्य हिन्दू समाज पर रूढ़िवादी इस्लाम के प्रभुत्व का प्रतीक था। इसके अनुसार जबरदस्ती धर्म परिवर्तन, भारतीय इतिहास (मुस्लिम शासकों का ) इन्हीं क्रूरताओं की कहानी है। क्या ये बातें सही हैं ? क्या इस तरह की मान्यता अनैतिहासिक, झूठी और गलत धारणाओं पर आधारित नहीं है?
पिछले साठ सत्तर वर्षों के दौरान मध्यकालीन इतिहास के मूल स्रोतों के आधार पर काफी काम हुआ है। इन शोधों ने साम्प्रदायिक इतिहासकारों के हर उल्लेखनीय पहलू को निर्मूल साबित कर दिया है। उन्होंने हमारा ध्यान उन तथ्यों, प्रवृत्तियों और संस्थानों की ओर खींचा जिनका इतिहास की साम्प्रदायिक संयोजना में कोई स्थान नहीं है। इन शोधों से यह भी स्पष्ट होता है कि भारत में शासक और शासित के बीच भेदभाव का कारण मुसलमानों के मध्य आपसी भेदभाव और विभाजन नहीं था बल्कि इसके ठीक विपरीत उन दोनों का पारस्परिक अन्तर्मिलन स्वाभाविक और अवश्यंभावी था। यह अन्तर्मिलन कई मामलों में हुआ और भारतीय सभ्यता के विकास में यह एक नये चरण की शुरुआत थी।
भारत के तुर्की शासन की स्थापना के प्रारंभ से ही अधिकांश स्थानीय वंशानुगत हिंदू सरदार मुस्लिम शासकों के सहभागी थे।
इल्वरी तुर्कों के शाही प्रशासन में जमींदारी रूपी सामाजिक राजनीतिक सत्ता वास्तव में हिन्दू सरदारों के हाथों में थी। राजनीतिक और सैनिक प्रभुत्व को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से प्रारम्भिक तुर्की सुल्तानों ने एक निरंकुश ऊपरी व्यवस्था के द्वारा अपने शासन को मजबूत बनाया। इससे संबंधित लगान वसूली व्यवस्था में चौधरियों और मुकद्दमों को भी शामिल किया गया। जिससे उनकी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि हुई। प्रशासन के निचले स्तर पर इन चौधरियों एवं मुकद्दमों की बड़ी महत्वपूर्ण स्थिति थी। जहां तुगलक काल में भारतीय मूल के मुसलमान अमीरों का प्रभुत्व रहा, धीरे-धीरे सल्तनत की प्रशासकीय व्यवस्था में उच्च पदों पर हिन्दू शासक वर्ग के लोगों की भी भर्ती की जाने लगी। प्रो. रोमिला थापर का कहना है "गैर मुस्लिम जनसंख्या पर लगने वाला कर 'जजिया' सुल्तानों की सनक के अनुसार भिन्न-भिन्न होता था और आय का प्रमुख स्रोत माना जाता था। सैद्धान्तिक दृष्टि से अनेक श्रेणियों के लोग इस कर से मुक्त होते थे, लेकिन यह कर मुक्ति सर्वत्र एक सी नहीं होती थी। बहुधा इस कर को राजस्व बढ़ाने के एक वैध साधन के रूप में वसूल किया जाता था और अनिवार्यतः गैर मुस्लिम जनसंख्या को दंडित करना इसका उद्देश्य नहीं था।
... इसी प्रकार मुस्लिमों से लिया जाने वाला विशेष कर भी सुल्तान की इच्छा पर निर्भर था। " (भारत का इतिहास पृ. 245) अर्थात मुसलमानों से भी 'जकात' जैसा कर वसूला जाता था।
        आज भी सबसे बड़ी साम्प्रदायिक समस्या हमारे सामने आ पहुंची है, जिसके कारण हर भारतीय जीवन के हर लम्हे को आशंका के साये में जी रहा है। उसके लिए मुस्लिम शासकों को धर्म एवं संप्रदाय को विनष्ट करने के कारण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि मुस्लिम शासकों ने मंदिर व मंदिर की मूर्तियों को विनष्ट किया। इन बातों को शुद्ध रूप से धर्म से जोड़कर देखा जा रहा है। क्या सच्चाई यही है?
प्रो. रोमिला थापर ने उस पर विस्तृत विचार करते हुए लिखा है- " दिल्ली के कुछ सुल्तान मंदिर तोड़ने वाले और मूर्तिभंजक के रूप में बदनाम हुए। इतिहासकारों ने इन कार्यों का बड़े विस्तार से वर्णन किया है। संभवतः ऐसा करके वे इस्लाम के प्रति अपने संरक्षकों की भक्ति सिद्ध करना चाहते थे। वास्तव में इसमें धर्मनिष्ठा के अलावा भी और बातें रही होंगी।
सुल्तान (अलाउद्दीन) को इस्लाम धर्म के कट्टर धर्मानुयायिओं का सम्मान दिलाने के लिए इतिहासकारों को सिद्ध करना पड़ा कि सुल्तान ने काफिरों का जीना दूभर कर दिया था। महमूद के आक्रमणों का कारण तो उसका विशुद्ध धार्मिक मूर्तिभंजक होना समझा जा सकता है, हालांकि यहां भी धार्मिक उद्देश्य की अपेक्षा धन का आकर्षण अधिक प्रबल था, परंतु शासन करने वाले किसी राजा के लिए धार्मिक ख्याति प्राप्त करने का उद्देश्य से मंदिर का विनाश करना हद दर्जे की मूर्खता प्रतीत होती है। "  (भारत का इतिहास पृ. 251) यहां पर मेरा इतना बड़ा उद्धरण देने का आशय यह स्पष्ट करना है कि जो लोग यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मुसलमान शासकों द्वारा नष्ट किए गए धार्मिक स्थानों का उदेश्य हिन्दू धर्म को नष्ट करना था, ऐसा नहीं लगता। उसके भीतर आर्थिक या राजनीतिक कारण परिलक्षित होते हैं। इसी बात को प्रो. रोमिला थापर ने सिंध के अरब विजेता मुहम्मद बिन कासिम द्वारा अपने एक उच्चाधिकारी को लिखे गए पत्र के उत्तर को उद्धृत कर और ज्यादा स्पष्ट कर दिया है। " मेरे प्रिय भतीजे मुहम्मद बिन कासिम का पत्र मिला। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्णणवाद के मुख्य निवासियों ने बुद्ध के मंदिर की मरम्मत करने और अपना धर्म पालन करने की अनुमति चाही है, खलीफा को कर देना स्वीकार कर लिया है अतएव उनसे कुछ और अपेक्षा करना उचित नहीं है। वे हमारे संरक्षण  में लिये गये हैं और हम किसी भी दशा में उनके जीवन या संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। उन्हें अपने देवताओं की उपासना करने की अनुमति दी जाती है। किसी को अपने धर्म का पालन करने से मना करने की अनुमति नहीं है।" (भारत का इतिहास पृ. 251)
इसी तरह यह कार्य एक राज्य का दूसरे राज्य पर सत्ता प्रदर्शन के लिए किया जाता था जैसा कि एक बाद के सुल्तान सिकंदर लोदी के मामले में हुआ जो अपने सत्ता प्रदर्शन के मामले में जौनपुर के शासक की मस्जिदें तोड़ना चाहता था। इस मामले में विरोध धर्म की कोई बात नहीं है क्योंकि दोनों शासक मुसलमान थे। फिरोज तुगलक के बारे में यह कहा जाता है कि वह मूर्तिभंजक था लेकिन उसकी साहित्यिक, सांस्कृतिक रुचि को देखते हुए यह तर्कसंगत नहीं लगता। कांगड़ा के एक पुस्तकालय को देखने के बाद उसने हिन्दू धर्म पर लिखी गयी अनेक पांडुलिपियों का संस्कृत से फारसी और अरबी में अनुवाद कराने का आदेश दिया था। क्या कोई एक धर्म से घृणा करने वाला इस तरह का कार्य कर सकता है? इसी तरह उसने तोपरा में अशोक के स्तंभ देखने के पश्चात उसे दिल्ली मंगवा कर अपने दुर्ग की छत पर लगवाया जबकि उसे यह बताया गया था कि इसका संबंध हिन्दू धर्म के कर्मकांड से है।  अगर काफिरों की पूजा की वस्तुओं से उसे घृणा होती तो वह उसे नष्ट न करवा देता?
यह काल पूरी तरह अवसरवादिता का था। जिसमें लगातार संधियां की जाती और तोड़ी जाती थीं। मुस्लिम शासक हिन्दू राजा से और हिन्दू राजा मुस्लिम शासक से संधि और सहायता प्राप्त करता । 'मैत्री और युद्ध' धर्म की विभिन्नता पर आधारित नहीं होते थे। जब तक राजनीतिक उद्देश्य की सिद्धि होती हो धर्म पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता किन्तु जहां संभव होता था, धर्म का पूरा पूरा लाभ उठाया जाता था।
कला को अपने सामाजिक वातावरण के संदर्भ में जांचने के लिए नये प्रश्न उठाने पड़ेंगे। जैसे मध्यकालीन समाज के अंतःसंबंध, उसकी संस्कृति यानी कला एवं वास्तुकला के माध्यम से किस प्रकार अभिव्यक्त होते थे। इऩ कलाओं ने ऐसे किन मूल्यों को जन्म दिया जिन्होंने इस व्यवस्था को दृढ़ करने का कार्य किया?  अर्थ व्यवस्था के स्वरूप तथा तकनीकी विकास की सीमा पर कलात्मक स्रोतों द्वारा क्या प्रकाश पड़ता है? शासक वर्ग ने कलात्मक समीकरण का प्रयोग कैसे अपने हित में किया?
उत्पादन और तकनीकी विकास के केंद्र होने के अतिरिक्त शहरी इलाके संस्कृति के भी केंद्र बन गये जिनमें इस्लाम और हिन्दुत्व की परम्पराओं के  समन्वय को जन्म दिया था। 13वीं शताब्दी के बाद भारतीय इस्लामी संस्कृति मध्य एशिया में विकसित इस्लामी परम्परा के तत्वों के साथ-साथ तुर्की आक्रमण से पूर्व पनपने वाली हिन्दू, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं के सम्मिश्रण से बनी थी। इस्लाम की महराब शैली के विपरीत इस्लाम के आगमन से पहले की स्थानीय शिल्प शैली को हम 'शहतीरी शिल्प शैली' कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में उसकी मुख्य विशेषता आड़ी व खड़ी रेखायें थीं जो कि स्तंभों पर कोष्ठकों की सहायता से कड़ियां रखकर बनाई जाती थीं। कई तकनीकी साधनों के अभाव के कारण मंदिरों आदि के निर्माण में कड़ियों वाले छज्जों (Corbelling)  और अन्तर्ग्रथन (dovetailing) जैसी शैलियों का प्रयोग आवश्यक हो गया।  अधिकतर मंदिरों के निर्माण में शिखर शैली अपनाये जाने का मुख्य कारण यह भी है। स्थापत्य से सजावट के लिए प्रयुक्त आसपास के फूल-पत्तों व जीवों की प्रचुरता में हमें देशी या भारतीय कला शैलियों का प्रभाव दिखायी देता है। आरम्भिक टकराव के बावजूद इन दोनों विपरीत परम्पराओं ने स्वयं को समन्वय के पथ पर ढाल दिया। विशेष स्थानीय शिल्प शैली की एक अन्य विशेषता उसकी धार्मिक मौलिकता थी जिसे मिथक कला के संदर्भ में विश्लेषित किया जा सकता है। इसे ही मांगलिक कला की संज्ञा दी गई है। हिन्दू वास्तुकला मुख्यतः 'लोक शैली की कला' थी जो राजनीति और दरबारी संरक्षण से दूर जनता की भावनाओं एवं समय की धाराओं पर आधारित थी। समकालीन भवनों को धार्मिक या धर्म निरपेक्ष (लौकिक) जैसे दो रूपों में विभाजित करना कृत्रिम सा लगता है, क्योंकि मस्जिद, मदरसे, किले, मकबरे और खानकाहों आदि में विभिन्न सामाजिक कार्यों का निर्वाह होता था। अतः उन्हें धार्मिक और धर्म निरपेक्ष श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता।
जब उत्तरी भारत पर दिल्ली के सुल्तानों का पूरा नियंत्रण था तब ताड़पत्र और कागज पर सचित्र पांडुलिपियों बड़ी संख्या में जैन सौदागरों के लिए प्रस्तुत की गयीं। ये सौदागर इनको अपने मंदिरों, मठों में संलग्न पुस्तकालयों को भेंट करते थे। सल्तनत युग की प्रारम्भिक चित्रांकित हिन्दू मुस्लिम पांडुलिपि मिली है, अमीर खुसरो हिलवी की 'खम्सा' नामक पाण्डुलिपि के बिखरे हुए पृष्ट मिले हैं। इन चित्रों की शैली के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के मिश्री मामलुक चित्रों एवं ईरान की ईजु चित्रकला शैली स मिलते जुलते हैं। एगि हाउसेन और फ्राड ने पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के प्रथम चरण की आठ तिथियुक्त पांडुलिपियों की खोज की है। उऩकी शैली एक जैसी नहीं है पर ये शिराजी शैली के दक्षिण तैमूरी प्रादेशिक शैली के चित्रों से बहुत घनिष्ठ रूप से मिलते जुलते हैं। साथ ही इनमें भारतीय मूल की शैली और मूर्तिशिल्प सबंधी विशेषताएं भी विद्यमान हैं।
 मुस्लिम सूफी संतों ने समकालीन संगीत के विकास में बहुमूल्य योगदान दिया। सल्तनतकाल भारतीय संगीत के इतिहास में अभिनव प्रयोगों का युग था। इसी काल में नवीन वाद्यों, गायन पद्धतियों एवं रागों का आविष्कार हुआ। मध्यकालीन संगीत परम्परा के आदि संस्थापक प्रसिद्ध कवि, इतिहासकार एवं दार्शनिक अमीर खुसरो थे। उन्होंने भारतीय संगीत में अनेक रागों और तालों की वृद्धि की। उन्होंने यह कार्य ईरानी एवं भारतीय संगीत के मिश्रण से किया। खुसरो ने भारतीय रागों का वर्गीकरण ईरानी नामों के आधार पर किया। ऐसा प्रचलित है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम भारतीय संगीत में कव्वाली गायन को प्रचलित किया। उन्हें अनेक आधुनिक रागों, तिलक, साजगिरी, सरपदा आदि को प्रचलित करने का श्रेय दिया जाता है। वर्तमान सितार का आविष्कार नेमत खां 'सदारंग' के छोटे भाई खुसरो खां ने किया जो फिरोज खां 'अदारंग' के पिता थे। 
सूफियों ने संगीत के प्रचार में कोई कसर न उठा रखी थी। राजा लोग भी उनका आदर सम्मान करते थे। ये गजल के रूप में खुदा की इबादत करते थे, जो प्रेम काव्य से ओत-प्रोत होती थी। उन्होंने जिस भाषा का प्रयोग और प्रसार किया वह हिन्दी की अवधी बोली से काफी मिलती जुलती थी। इस गेय काव्य ने समकालीन भारत की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं  के मध्य भाषागत समन्वय की स्थापना की और इसी समय हिन्दी की गेय रचनाओं को भारतीय अथवा ईरानी दोनों धुनों में गाया जाने लगा। हिन्दू और मुसलमान कलाकारों ने आपसी तालमेल से इस काल में संगीत को एक विशेष दिशा प्रदान की जो जाति धर्म के बंधन से ऊपर उठ कर मानव के प्रति प्रेम का संदेश देती है।
इस प्रकार हमें स्वस्थ समाज के   निर्माण में अपनी भूमिका का पालन एक पक्षीय या एक वर्गीय होकर करने पर उन्हीं खतरों का सामना करना पड़ेगा जिससे हमें बचना चाहिए। आज के इस माहौल में हमें इतिहास के उन भागों अर्थात हमें अतीत का, अपनी अस्मिता और अपनी संस्कृति का फिर से निरीक्षण करना होगा और इसके लिए प्रगतिशील मूल्यों तथा वैज्ञानिक ढंग से इतिहास का मूल्यांकन जरूरी है।   
   

 

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