आलोक वर्मा
यह भूमंडलीकरण का युग है।
इसके प्रवेश के साथ-साथ अभूतपूर्व सांस्कृतिक संकट आया है। विज्ञान के विस्फोट तथा
भाषा के अंतःस्फुट के साथ-साथ जहां एक ओर तकनीकी प्रगति शिखर की तरफ बढ़ रही है,
वहीं सामाजिक और सांस्कृतिक संकट की तीव्रता भी महसूस की जा रही है। आज लेखक के
सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह इतिहास के अंत और विचारधारा के अंत के बवंडर में
इतिहास को या समाज की भूमिका को कैसे रचनात्मक रूप दे। यही नहीं रचनात्मकता के
सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि वह भाषा संबंधी, ज्ञान मीमांसा संबंधी दैनंदिन आचरण
को कैसे रूपायित करे।
‘ क्रमशः‘ कहानी संग्रह की लेखिका ने इस उहापोह में जो कौशल अपनाया
है, वह ‘ नई कहानी ‘ के शिल्प का अतिक्रमण नहीं कर पाया है। लेकिन नई
कहानी आंदोलन से इस मायने में भिन्न है कि इसमें संवेदनशीलता का, अनुभूति की
तीव्रता का जो रचाव है, वह नई कहानी की रोमानी भावुकता से अछूता है। उदाहरण के लिए
इन कहानियों में राजेंद्र यादव की कहानियों जैसा लिजलिजापन नहीं है और न तो निर्मल
वर्मा जैसा अतीत के प्रति आत्म समर्पण है। यद्यपि ये कहानियां रोजमर्रा के आचरण,
विचार तथा मानवीय संबंधों की जीवंत छवि प्रस्तुत करती हैं, परंतु लेखिका न बड़ी
सतर्कता से ‘ एब्सर्ड‘ तथा अमूर्त चिंतन से कहानियों को सुरक्षित रखा है।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि
आज सर्वव्यापी विघटना की स्थिति में कथाकार अंतर्विरोधों को पहचानते हुए इस
अव्यवस्था में, कहानी में कैसे व्यवस्था कायम करे? उदाहरण के तौर पर ‘ खोखला ‘
कहानी में उस वर्ग का चित्रण किया गया है, जो गांव से टूटकर शहर में जाता है और
मध्य वर्ग का सांस्कृतिक आवरण पहनकर उपभोक्ता संस्कृति के अतल गहवर में डूब जाता
है। सचमुच मध्य वर्ग का अपना कोई मौलिक चरित्र नहीं होता, वह आयातित संस्कृति तथा
मध्यवर्ग का अभिनय करता है। इस वर्ग के सारे अंतर्विरोध इस कहानी में रूपायित किए
गये हैं।
‘ औरत और पोस्टर कहानी ‘ में नारी जाति के बदरंग और शेष होते अस्तित्व की
समस्या सिनेमा पोस्टर के माध्यम से उठाई गई है। अपढ़ और किशोर मानसिकता को सिनेमा
कैसे विकृत कर रहा है, इस भयावहता को एक महिला के माध्यम से बड़ी तीव्रता से पाठक
महसूस करता है। वहां भी कहानी का पात्र अपने मानवीय व्यवहार से बच्चों में छिपी
भाव प्रवणता को कैसे उद्दीप्त करता है, यही इस कहानी का सार है।
आज जब उत्तर आधुनिकता की
चपेट में मनुष्य को सामूहिक बनाकर उसे मशीन के रूप में परिणत कर प्रभुत्व की ओर धकेला
जा रहा है, वहीं ‘
मर्सी कीलिंग‘ नामक कहानी में एक नारी अपने गर्भ
में पलते शिशु के प्रति ममत्व को कितने तीव्र रूप से महसूस करती है, उसके मानसिक
उहापोह को, छटपटाहट का जो स्वर संप्रेषित हुआ है , वह उपभोक्ता संस्कृति की
तेजधारा में तिनके की तरह न बहकर एक नया मोड़ देने की ममत्व भरी ललक है। कमल कुमार
की सभी कहानियों में एक आदर्शवाद की छौंक मिलती है। यद्यपि यह आदर्शवाद मानवीय
स्वभाव की वास्तविक और तार्किक परिणति में अंतर्ग्रथित है, परंतु आज के क्रूर,
कठोर परिवेश में यह कथा लेखिका की कमजोरी भी है, जिससे क्रूरता और अमानवीयता की
अभिव्यक्ति धुंधली पड़ जाती है।
सार्त्र ने लिखा था कि हर
कविता में थोड़ा गद्य और हर गद्य में थोड़ी कविता होती है। कमल कुमार की कहानियों में
यत्र तत्र परिवेश के जो चित्र रचे गए हैं, वे कविता जैसे लगते हैं। लेकिन एक गद्य
में कविता का प्रभाव और दूसरी ओर उसी कहानी में ब्यौरों का विस्तार, इन दो शैलियों
का प्रयोग अपने आप में यथार्थ के एक नए रूप का सृजन है, परंतु आज के पाठक की
ग्रहणशीलता और आस्वाद परकता की मांग यह है कि विषय और वस्तु की कलात्मक रचनात्मकता
संकेतों में हो।
‘ क्रमशः‘ कहानी का एक उद्धरण देखिये- ‘ उस हादसे के बाद घर में सन्नाटा छा गया, जैसे समय थम गया
था, सारी आवाजें चुपा गई थीं। घर की हवा बोझिल हो गई थी। सांस भी तकलीफ से ली जाती
थी। मृत्यु की रस्में पूरी हुईं, सब दिलासा देकर अपनी दिनचर्या में लौट गए थे...। ‘ उपर्युक्त उद्धरण भाषा विमर्श के लिए एक संकेत है।
नई कहानी के भाष्यकारों ने अनुभूति की प्रामाणिकता की बात उठाई थी, लेकिन अनुभूति
वास्तविक नहीं होती, वह वास्तविकता के समानांतर एक कल्पित वास्तविकता होती थी। अगर अनुभूति
वास्तविक होती तो यथार्थवाद और नग्न यथार्थवाद का अंतर मिट गया होता। सच तो यह है
कि अनुभव का अनुभव होना ही अनुभूति कहलाता है और अनुभूति की निर्मिति में कल्पना
का सजग योगदान होता है। उदाहरण के लिए हादसा, सन्नाटा, घर की हवा बोझिल होना, सबका
संज्ञाशून्य हो जाना ये सारे पद कविवता के प्रतीक जैसे हैं और इनका संदर्भ विषय को
वस्तु और वस्तु को विचार बनाने में एक पृष्ठभूमि का काम करता है। पूरी कहानी में
मृत्यु और उसके बच्चे के जन्म के बीच जो तनाव है, वह तनाव ही पूरी कहानी को एक गहरी
अर्थ-व्यंजना से भर देता है।
कमल कुमार न स्त्री-पुरुष
के प्रेम संबंधों को लेकर कई कहानियां लिखी हैं। यहां फूल और नारी का आकर्षण तो
दिखाया गया है, लेकिन ज्यों ही आकर्षण लौकिकता की तरफ लपकता है, वहीं नारी पात्र
झटके से अपने विमर्श का अंत कर देती है और कहानी झटके से समाप्त हो जाती है। ऐसी
सभी कहानियां अधूरी हैं। संवेदनाशीलता कथा लेखिका की कलात्मकता का प्राणतत्व है।
कहानी और नयी कहानी की व्यवस्था करते हुए डा. नामवर सिह ने भावुकता की व्याख्या की
है। नयी कहानी आंदोलन में प्रचारित अधिकांश कहानियों में जो कल्पना प्रवणता थी, वह
एक तरह का रोमैंटिक आवेग था। कमल कुमार की कहानियों की अनुभूति में रीजन (तर्क) की
एक अंतःसलिला प्रवाहित होती है, जिसमें अनुभूतियां मूर्तिवान होती हैं और पात्रों
की जो सांस्कृतिक नियति बनती है, वह एक तरह से सांस्कृतिक, ऐतिहासिक साक्ष्य का
काम करती है। कमल कुमार की लगभग सभी कहानियों में जो साक्ष्य रचे गए हैं, वे
व्यक्ति होते हुए भी समाज के प्रतिनिधि लगते हैं। नितांत आत्मिकता जो समाज से
व्यक्ति को निसंग बनाती है, उसमें अद्वितीयता का अभाव है और यही अभाव कहानी को
वास्तविक, सामाजिक और सांस्कृतिक बनाता है।
पुस्तक का नाम- क्रमशः
लेखक- कमल कुमार
मूल्य – 90 रुपये
प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ
, 18 इंस्टीट्यूशनल एरिया,
लोदी रोड, नई दिल्ली।
(यह समीक्षा अमर उजाला में
12 अक्तूबर, 1997 के अंक में प्रकाशित हुई थी।)
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