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साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण का विकल्पः ‘काल-बोध’



आलोक वर्मा

संप्रति यूरोपीय महादेशों में समाज वैज्ञानिक एक गंभीर बहस में उलझे हुए हैं। यह बहस मास सोसायटी और मास कल्चर के नाम से चलाई जा रही है। समाजशास्त्रियों का मानना है कि पूंजीवादी उत्पादन के कारण समाज अराजकता की चपेट में कसता जा रहा है। इस अराजकता से शून्य की स्थिति पैदा हो रही है।
आज दुनिया इतनी छोटी होती जा रही है कि इस समस्या की उपेक्षा हम भी नहीं कर सकते। विज्ञापन और बाजार के माध्यम से पूंजीवादी पब्लिक ओपीनियन पैदा कर समूचे राष्ट्र में गृह युद्ध की संभावना तैयार कर रहे हैं। अर्थात देश-विदेश में जो तनाव और द्वंद्व चल रहा है, उस क्रांतिकारी परिस्थिति को कैसे प्रतिक्रांतिकारिता में परिवर्तित कर दिया जाए। इसके साथ सूचना साम्राज्यवाद की भी अवतारणा कर दी गई  है। इसके माध्यम से वस्तुओं के साथ – साथ मनुष्य के ज्ञान चेतना, जीवन मूल्य तथा आशा आकांक्षा पर आधिपत्य स्थापित किया जा रहा है।
हमारे संस्कृति जगत के सभी कार्यकर्ताओं का ध्यान उधर क्यों नहीं पहुंच पा रहा है? कुछ लोग अवश्य साहित्य और संस्कृति के ऊपर साम्राज्यवादी अभियान से विचलित हो उठे हैं। वे इस प्रक्रिया के प्रति जागरूक हैं कि अपसंस्कृति और साम्राज्यवादी संस्कृति के साथ-साथ विभाजित समाज में जनसाधारण के वर्ग हितों के संबद्ध एक क्रांतिकारी, प्रगतिवादी, जनवादी संस्कृति होती है। वे विकल्प के रूप में इसी क्रांतिकारी संस्कृति को निर्मित कर रहे हैं। काल बोध पत्रिका इसी विश्वदृष्टि को उजागर करती है।
संपादकीय में लिखा गया है- आज समूची दुनिया इतिहास के एक ऐसे अंधेरे से गुजर रही है, जहां मानवता भयावह सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संकट का सामना कर रही है और इस संकट का कारण है विश्व पूंजीवाद। असाध्य मंदी से मुक्ति के लिए  पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था में भूमंडलीकरण करने का उसका प्रयास जारी है।... इसी संकटपूर्ण स्थिति को विचारधारा का संकट से जोड़ने की मुहिम चलाई जा रही है। ... सांस्कृतिक साहित्यिक धरातल पर भी यह प्रतिक्रियावादी विचारधारा सक्रिय है।संपादकद्वय परशुराम और पंचदेव सुझाव देते हैं कि ... क्रांतिकारी प्रगतिशील और लोकतांत्रिक शक्तियां एकजुट होकर सांस्कृतिक धरातल पर इन प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक स्रोतों और षड्यंत्रों का पर्दाफाश तो करें ही, साथ ही जनता की चेतना का स्वस्थ वैज्ञानिक मूल्यों और उन्हें वर्ग संघर्ष के क्रांतिकारी व्यवस्था से जोड़ने की दिशा में आंदोलन विकसित करें।
पत्रिका में इसी वर्ग दृष्टि से संपन्न कविता, कहानी, लेख, समीक्षा सहित सभी सामग्रियों में अन्वति लगती है। इससे संपादकीय परिपक्वता की समझदारी का परिचय मिलता है। शिल्प की दृष्टि से कविताएं कुछ कमजोर हैं लेकिन नचिकेता और वीरेंद्र प्रताप की कविताएं उल्लेखनीय हैं। पलाश विश्वास की कहानी जो बोया सो काटे इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसमें एक खेत मजदूर और उसकी पत्नी के आहत अभिमान के प्रति उनके आक्रोश एवं अस्तित्व रक्षा के प्रयत्नों से यह कथा संरचना सार्थक हो उठी है। जगदीश्वर चतुर्वेदी का टेलीविजन पर लेख इस माध्यम की सर्वग्रासी पद्धति से पाठक को सचेत करता है।
परशुराम ने कहानियों की अंतर्वस्तु में कथाकारों की रचनादृष्टि के हस्तक्षेप की भूमिका का गंभीर विश्वलेषण किया है। उनका मत है, यह कार्य रचनात्मक स्तर पर तभी संभव है, जब सामाजिक अंतर्विरोधों की गहरी पहचान से यथार्थ के उस पक्ष को खोजा और चित्रित किया जाए, जिसकी धड़कन संघर्षशील आस्था और विवेक की पहचान में है। मुक्तिबोध की कहानियों पर मृत्युंजय सिंह का आलेख उनकी गहरी वर्गीय समझ को दर्शाता है। पंचदेव ने पृथ्वी का प्रेम गीत के कवियों की सामाजिक संलग्नता की व्याख्या की है। अच्छा होता यदि वह कवियों की रोमानी भाषा और कविता की बुनावट का भी विश्लेषण करते।
समीक्षित पत्रिका- काल बोध
संपादक- परशुराम, पंचदेव
मूल्य – दस रुपये
संपर्क- 140/1, रामकृष्णपुर लेन
शिवपुर, हाबड़ा- 711102 (पश्चिम बंगाल)

(यह समीक्षा हिंदी दैनिक अमर उजाला के रविवासरीय परिशिष्ट में 22 जनवरी 1995 को प्रकाशित हुई थी।)
       

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