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राजनीति में महिलाएं रास्ते पर बाधाएं बहुत हैं


आलोक वर्मा


इस पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं की बेहतरी के लिए चाहे जितना भी प्रयास किए जाएं, कोई खास फर्क नहीं पड़ता। महिलाएं आज भी पददलित और शोषित ही हैं। वैसे तो वे आबादी का आधा हिस्सा हैं, लेकिन पुरुषों ने उन्हें हाशिए पर धकेल रखा है। इसके लिए बीजिंग में आयोजित विश्व महिला सम्मेलन में भारत की तरफ से प्रस्तुत कुछ आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा। भारत में एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 927 है। बच्चों की मृत्यु दर में लड़कियों की संख्या लड़कों की अपेक्षा काफी अधिक है। स्वतंत्रता के बाद निरक्षरता में काफी कमी आई है, इसके बावजूद महिलाओं की साक्षरता दर काफी कम है। नौकरियों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की दर दोगुणा है। प्रबंधन क्षेत्र में पुरुषों की संख्या महिलाओं की पांच गुणा है।  आज भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़ा दी जाती है। इसके बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियां लगातार लड़कों से अव्वल आ रही हैं। आज भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ज्यादा बेरोजगार हैं। लड़कियों/महिलाओं के साथ पक्षपात के ये आंकड़े यहीं खत्म नहीं होते, इनकी सूची बड़ी लंबी है।
क्या कारण है कि भारतीय नारी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से इतनी पिछड़ी हुई है। क्यों इसे अधिकारविहीन बना दिया गया है? क्या कारण था कि ये आगे नहीं बढ़ पायीं? इसकी तह में जाने के लिए हमें पीछे लौटना पड़ेगा। भारतीय परंपरा और संस्कृति की तह में जाकर इन प्रश्नों के जवाब ढूंढने पड़ेंगे। भारतीय समाज में स्त्री की जैविक भिन्नता का वर्णन ही उसकी तमाम समस्याओं के मूल में है। प्राचीन संस्कृति ने स्त्री की केवल दो भूमिका निर्धारित की - सेक्स तथा मातृत्व।
उसी का नतीजा है कि भारतीय समाज में महिलाओं को पुरुष वर्ग का शोषण झेलना पड़ा। ऐसा लिंग भेद के कारण किया गया। मान लिया गया कि विशिष्ट शारीरिक संरचना के चलते बाहर के कार्य औरतें नहीं कर सकतीं। इसलिए उन्हें घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया। औरतों ने भी उसका प्रतिरोध नहीं किया, जिसक कारण पुरुष प्रजाति ने सारे अधिकार अपने कब्जे में कर लिए और अपनी सुविधानुसार नियम-कानून तय करते रहे। स्त्री जाति ने भी इसे अपनी नियति मान लिया। वह गौण रूप से पुरुष समाज के बनाए ढांचे में फिट होती गई। वह अपनी पारंपरिक भूमिका में बंधी रह गई। सभ्यता और संस्कृति ने उसे कुंद कर दिया, वह ऐहिकता और दैहिकता से परे नहीं जा सकी।
उधर, जिस भारतीय कानून की रचना की गई वह इसी संस्कृति और परंपराओं को ध्यान में रखकर लिया गया। इसलिए कानूनन विकास की अवधारणा एकपक्षीय पुरुष संस्कृति की समर्थक बनकर रह गई। इसके चलते महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी के लिए जो अधिकार मिलने चाहिए थे, वे आज भी नहीं मिले हैं।
महिलाओं की चिंताजनक स्थिति क मद्देनजर उन्हें विकास के अवसर दिए जाने का फैसला किया गया। महिला सम्मेलनों और संगोष्ठियों में विचार-विमर्श के बाद यह सुनिश्चित किया गया कि महिलाओं को व्यक्तित्व विकास का समान अवसर देने के लिए सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में उनकी भागदीरी आवश्यक बना दी जाए, ताकि वे अपनी प्रतिभा का उचित उपयोग कर सकें। इसके लिए महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता का होना सबसे जरूरी था। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने महिलाओं के आरक्षण की पहल की। उनकी पहल पर 73वें और 74वें संविधान संशोधन बिल के जरिये ग्राम पंचायतों और शहरी निकायों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित कराया। फिर 1996 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत महिला एवं बाल विकास विभाग ने महिलाओं की शक्ति संपन्नता के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई। इस नीति के सातवें विंदु में कहा गया कि शक्ति संपन्नता, विकास और समानता के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए महिलाओं की निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता को सुनिश्चित किया जाएगा। इसके तहत निजी और सार्वजनिक क्षेत्र, विधानसभाओं, कार्यकारी, न्यायिक, स्थानीय निगम और संवैधानिक संस्थाओं और परामर्शदात्री आयोगों, समितियों, बोर्डों, न्यासों आदि में उनकी सहभागिता होगी।साथ ही यह भी कहा गया कि जब भी आवश्यक होगा आरक्षण सहित सकारात्मक कार्रवाई की जाएगी। इसी के तहत 16 मई 1997 को बजट सत्र के अंतिम दिन महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण संबंधी विधेयक पेश कर दिया गया।
लेकिन संसद में महिला आरक्षण बिल पेश करते ही एक वर्ग ने बावेला मचा दिया। जनता दल के तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष शरद य़ादव न संसद नहीं चलन दी। महिला आरक्षण विधेयक को लेकर सांसद अगली और पिछड़ी जातियों में बंट गए। उमा भारती के समर्थन में उनके ही दल के गंगाचरण राजपूत
 

(अमर उजाला में 14 नवंबर 1997 को रूपायन परिशिष्ट के लीड आर्टिकल के रूप में प्रकाशित) 
         


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